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प्रकरण दूसरा
लोकचंद्र रक्खा । वि० सं० १४९७ में लोकचंद्र का विवाह हुआ, जिसकी बरात अरहट वाड़ा से सिरोही गई । उसी लोकचन्द्र को लोग लौकाशाह कहने लगे । वि० सं० १५०० में लौकाशाह के एक पुत्र हुआ । बाद हेमाभाई ने अपनी दुकान का काम लौकाशाह को सौंपा, और लौकाशाह व्यापार कर अपने कुटुम्ब का निर्वाह करने लगा । बाद में लौकाशाह अहमदाबाद को चला गया ( शायद वहां अपना गुजारा नहीं होता था )। अहमदाबाद में नाणावटी का व्यापार कई दिन तक किया। अनन्तर बादशाह मुहम्मद की भेंट हुई और बादशाह ने लौकाशाह को पाटण के खजाने का तिजोरीदार बनाया, फिर वहां से अहमदाबाद के खजाने का काम किया । जब बादशाह के पुत्र ने बादशाह को जहर देकर मार डाला तो लौकाशाह को वैराग्य प्राया, और उसने पाटण जाकर वि० सं० १५०९ श्रावण सुदि ११ (चौमासा में) को यति सुमतिविजय के पास अकेले यति दीक्षा लेली और ज्ञानाऽभ्यास कर वि० सं० १५२१ में अहमदाबाद में चतुर्मास किया।"
लौकाशाह के इस जीवन से आज के नयी रोशनी के स्थानकमागियों को जो अभिलाषा थी वह सब पूर्ण होगई। क्योकि लोकाशाह साधारण लहिया नहीं पर बादशाह का माननोय तिजोरीदार था, लौकाशाह ने गृहस्थाऽवस्था में नहीं पर यति होकर अपना नया मत चलाया। यदि लौकाशाह का यहो जीवनवृत्त किसी लौकाशाह के अनुयायी के नाम से तैयार किया जाता तो शायद इतना विश्वास पात्र नहीं समझा जाता । पर इसका लेखक तो खास तपागच्छीय यति कान्तिविजय बताये जाते
लोकाशाह की जो
या नह
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