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प्रकरण सातवाँ
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स्वामीजी की यह कल्पना ठीक ही है कि बिचारा साधारण लहीया कोई महत्त्व का कार्य नहीं कर सकता, और लौंकाशाह ने भी तद्वत् कोइ महत्व का कार्य नहीं किया । बने हुए घर में फूट डाल के एक अलग हिस्सा करना यह कार्य महत्त्व का थोड़े ही है । महत्व का कार्य तो पृथक नींव खोद कर नया मकान खड़ा करना है। घर में आग लगाना कौन महत्त्व का कार्य बताता है । ऐसा घृणित कार्य तो निःसहाय विधवा भी कर सकती है । प्रागे आप लिखते हैं कि लौकाशाह ने लाखों मनुष्यों को मूर्ति पूजा छुड़ाकर अपने अनुयायी बनाये, एवं लौकाशाह विद्वान् तथा धनाढ्य था, पर इस कथन के लिये स्था० साधुओं के पास कुछ भी प्रमाण नहीं है । यह तो केवल कल्पना की सृष्टि है। सत्य बात तो उन्हीं प्राचीन लेखों से विदित होती है जो हम ऊपर बतला आये हैं।
चारसौ वर्ष पूर्व के सरल हृदयी और सत्स्वभावी स्था० साधुओं का लिखा हुआ लौकाशाह का व्यवसाय आडम्बर प्रिय
आज के स्थानकमार्गी साधुओं को कैसे प्रिय हो सकता है । वे तो उन्हें बड़ा भारी विद्वान बडा साहूकार राजकर्मचारी, एवं बादशाह का परम प्रिय व्यक्ति देखना चाहते हैं। परन्तु उनको दुःख इतना ही है कि अपने पूज्य पूर्वजों का लिखा हुआ प्राचीन इतिहास देख शिर नोचा करना पड़ता है ।
अस्तु, इस नये और पुराने के व्यर्थ झगड़े को दूर रख खास लौकाशाह संतबालजी के मुँह से क्या फरमाते हैं। उसे ही हम पाठकों के आगे रखते हैं। लौकाशाह अपने को पूछने वाले से कहते हैं:
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