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प्रकरण पहिला
"संवत् सोल पचासिए, अमदाबाद मझार । शिवजी गरू को छोड़ के, धर्मसिंह हुअा गच्छ बहार ॥
ऐ० नोंध, पृष्ट १७७ इस प्रकार लवजी और धर्मसिंहजी ने लौकांगच्छ से अलग अपना एक मत निकाला। उसको ही लोग पहिले ढूंढिया और बाद में साधुमार्गी तथा आज स्थानकमार्गी मत कहते हैं । अतः निश्चित होगया कि लौकागच्छ और स्थानकमार्गीयों की मान्यता एवं आचार व्यवहार में जमीन आकाश का अन्तर है, इसे हम आगे चल कर और भी विस्तार से बतायेंगे।
जिस लौकागच्छ की आज्ञा का भंगकर उनके अवगुण-वाद बोलने वाले यति लवजी और धर्मसिंहजी ने अपना मत पृथक निकाला, उनके ही अनुयायी आज अपने मत का संस्थापक लौकाशाह को याद करते हैं । कारण यह है कि पहिले तो लौकागच्छ के श्रीपूज्यों और यतियों के साथ स्थानकमार्गियों की घोर द्वन्द्वता चल रही थी, इस हालत से स्थानकमार्गी लौंकाशाह को खोज क्यों करते, और क्यों उनके लिए कुछ लिखते भी, पर जब वि० सं० १८६५ में अहमदाबाद में संवेगपक्षीय महापण्डित मुनि श्री वीरविजयजी और स्था० साधु जेठमलजी के श्रापस में शास्त्रार्थ हुआ तो उस हालत में जेठमलजो को लौकाशाह की शरण लेनी पड़ी, और उन्होंने अपने समकित सार नाम के ग्रंथ के पृष्ठ ७ में लौकाशाह के विषय में कुछ लिखा भी है। बस स्थानकमार्गियों के पास लौकाशाह के विषय में जो प्राचीन से प्राचीन प्रमाण कहा जाय तो यह जेठमलजी का लिखा हुआ समकिता सार काही प्रमाण है। पर आज के स्थान० समाज के नये
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