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योग्य साधु होने पर उसकी पदवी ले लेना चाहिये. माँगनेपर पद्वी छोड दे तो प्रायश्चित्त नहीं है. अगर न छोडे तथा छोंडाने के लीये साधु संघ प्रयत्न न करे, तो सबको तथा प्रकारका छेद और तप प्रायश्चित्त होता है. भावना पूर्ववत्.
(१५) आचार्योपाध्याय किसी गृहस्थको दीक्षा दी है, उस साधुको घडी दीक्षा देनेका समय आनेपर आचार्य जानते हुबे च्यार पांच रात्रिसे अधिक न रखे. अगर कोई राजा और प्रधान शेठ और गुमास्ता तथा पिता और पुत्र साथमें दीक्षा ली हो, राजा, शेठ, और पिता जो 'बडी दीक्षा योग्य न हुवा हो और प्रधान, गुमास्ता, पुत्र वडीदीक्षा योग्य हो गये हो तो जबतक राजा, शेठ और पिता वडी दीक्षा योग्य नहो वहांतक प्रधान, गुमास्ता और पुत्रको आचार्य बडी दीक्षासे रोक सकते है. परन्तु ऐसा कारण न होने पर उस लघु दीक्षावाला साधुको वडी दीक्षासे रोके तो रोकनेवाला आचार्य उतने दिनके तप तथा छेदके प्रायश्चित्तका भागी होता है.
(१६) एवं अनजानते हुवे रोके.
(१७ ) एवं जानते अनजानते हुवे रोंके, परन्तु यहां दश रात्रिसे ज्यादा रखनेसे प्रायश्चित्त होता है.
नोटः-अगर पिता, पुत्र और दुसराभी साथमें दीक्षा ली हो, पिता वडी दीक्षा योग्य न हुवा, परन्तु उसका पुत्र वडी दीक्षा योग्य हो गया है और साथ दीक्षा लेनेवालाभी वडी दीक्षाके योग्य हो गया है. अगर पिताके लीये पुत्रको रोक दीया
१ सात रात्रि, च्यार मास, छे मास-छोटी दीक्षाका तीन काल है. इतने समयमें प्रतिक्रमणसें पंडिषण नामका अध्ययन तथा दशवकालिकका चतुर्थाध्ययन पढलेनेवालोंको वडी दीक्षा दी जाती है.