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उपर लिखे दश गुणोंको धारण करनेवाले आलोचना सुनने योग्य होते है. वह प्रथम आलोचना सुने, दुसरी बखत और कहे-हे वत्स ! मैं पहला ठीक तरहसे नहीं सुनी, 'अब दुसरी दफे सुनावे. तब दुसरी दफे सुने. जब कुछ संशय हो तो, कहेकिहे भद्र! मुझे कुछ प्रमाद आ रहाथा, वास्ते तीसरी दफे और सुना, तीन दफे सुननेसे एक सदृश हो, तो उसे निष्कपट शुद्ध आलोचना समझे. अगर तीन दफेमें कुछ फारफेर हो, तो उसे माया संयुक्त आलोचना समझना. ( व्ववहारसूत्र. )
मुनि अपने चारित्रमें दोष किसवास्ते लगाते है ? चारित्र मोहनीयकर्मका प्रबल उदय होनेसे जीव अपने व्रतमें दोष लगाते है. यथा
(१) 'कन्दर्पसे'-मोहनीय कर्मके उदयसे उन्माददशा प्राप्त हो, हास्य विनोद, विषय विकार-आदि अनेक कारणोंसे दोष लगाते है.
(२) प्रमाद ' मद, विषय, कषाय, निद्रा और विकथाइस पांच कारणोंसे प्रेरित मुनि दोष लगाते है. जैसे पंजन, प्रतिलेखन, पिंड विशुद्धिमें प्रमाद करे.
(३) 'अज्ञात' अज्ञानतासे तथा अनुपयोगसे, हलन, चलनादि अयतना करनेसे--
(४) · आतुरता' हरेक कार्य आतुरतासे करनेमें संयमत्रतोकों बाधा पहुचती है,
(५) 'आपत्तदशा' शरीरव्याधि, तथा अरण्यादिमें आपदा आनेसे दोष लगावे.
१ शिष्यकी परिक्षा निमित्तदोष लगता है देखो उत्पातीकसूत्र.