________________
जाति-कुल उत्तम होगा, वह मुनि आत्मकल्याणके लीये आलो. चना करता कबी पीछा न हटेंगा.
(३) विनयवान् - आलोचना करने में विनयकी खास आ. वश्यकता है. क्योंकि-आत्मकल्याणमें विनय मुख्य साधन है.
(४) ज्ञानवान्-आलोचना करनेसे शायद इस लोकमें मान-पूजा, प्रतिष्ठामें कबी हानि भी हो, तो ज्ञानवंत, उसे अपना सुहृदयमें कबी स्थान न देंगा. कारण-ऐसी मिथ्या मान-पूजा, इस जीवने अनन्तीवार कराइ है. तदपि आराधकपद नहीं मिला है. आराधकपद, निर्मल चित्तसे आलोचना करनेसे ही मिल सके, इत्यादि.
(५) दर्शनवान्-जिसकी अटल श्रद्धा, वीतरागके धर्मपर है, वह ही शुद्ध भावसे आलोचना करेंगा. उसकी ही आलोचना प्रमाण गिनी जाती है, कि जिसका दर्शन निर्मल है.
(६) चारित्रवान-जिसको पूर्णतोसे चारित्र पालनेकी अभिरुचि है, वह ही लगे हुवे दोषोंकी आलोचना करेंगा.
(७) अमायी -जिसका हृदय निष्कपटी, सरल, स्वभाव होगा, वह ही मायारहित आलोचना करेंगा.
(८) जितेंद्रिय-जो इन्द्रियविषयको अपने आधीन बना लीया हो, वह ही कर्मोके सन्मुख मोरचा लगाने, तपरुप अन लेके खडा होगा, अर्थात् आलोचना ले, तप वह ही कर सकेंगा, कि जिन्होंने इन्द्रियोंको जीती हो.. . . (९) उपशमभावी-जिन्होंका कषाय उपशान्त हो रहा है.
न उसे क्रोध सताता है, न मानहानि मान सताता है, न माया न लोभ सताता है, वह ही शुद्ध भावसे आलोचना करेंगा.