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( ६ ) 'शंका' यह पूंजन प्रतिलेखन करी होगा या नही करी होगा इत्यादि कार्यमे शंका होना.
( ७ ) ' सहसात्कारे' बलात्कारसे, किसी कार्य करनेकी इच्छा न होनेपर भी वह कार्य करनाही पडे.
( ८ ) ' भय ' सात प्रकारका भयके मारे अधीरपनासे( ९ ) ' द्वेषदशा ' क्रोध मोहनीय उदय, अमनोज्ञ कार्य में द्वेषभाव उत्पन्न होने से दोष लगता है.
(१०) शिष्यादिकी परीक्षा ( आलोचना ) श्रवण करने के निमित्त दुसरी तीसरी बार कहना पडता है, कि मैंने पूर्ण नहीं सुनाथा, और सुनावें. ( स्थानांगसूत्र. )
दोष लग जानेपर भी मुनियोंको शुद्ध भावसे आलोचना करना बडाही कठिन है. आलोचना करते करते भी दोष लगा देते है. यथा
( १ ) कम्पता कम्पता आलोचना करे. अर्थात् आचार्यादिका भय लावेकि-- मुझे लोग क्या कहेंगे ? अर्थात् अस्थिर चित्तसे आलोचना करे.
( २ ) आलोचना करनेके पहला गुरुसे पूछे कि हे स्वामिन् ! अगर कोइ साधु, अमुक दोष सेवे, उसका क्या प्रायश्चित्त होता है ? शिष्यका अभिप्राय यह कि अगर स्वल्प प्रायश्चित होगा, तो आलोचना कर लेंगे, नहिं तो नहीं करेंगे.
( ३ ) किसीने देखा हो, ऐसे दोषकी आलोचना करे, ओर न देखा हो, उसकी आलोचना नहीं करे. ( कौन देखा है ? )
( ४ ) बडे बडे दोषोंकी आलोचना करे, परन्तु सुक्ष्म दोषोंकी आलोचना न करे.