Book Title: Shighra Bodh Part 21 To 25
Author(s): Gyansundar
Publisher: Sukhsagar Gyan Pracharak Sabha

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Page 376
________________ (२१) (प्र०) जीव मोहनिय कर्म वेदों हीन गुणस्थान क्यो भाता है। (उ०) प्रथम नीव सर्वज्ञ कथित तत्त्वोचर श्रद्धा प्रतीत रखता या फीर मोहनिय कर्मका प्रलोदय होनेसे । जिन वचनोंपर श्रद्धा नही रखता हुवा अनेक पाषंडपरूपीत असत्य वस्तुको सत्य कर मानने लग गया । इस कारणसे जीव मोहनिय कर्म वेदतों हीन गुणस्थान भाता है। (4) हे करूणासिन्धु । जीव नाक तीच मनुष्य और देव. तावोंमें किया हुवे कर्ष वीनों मुक्ते मोक्ष नहीं जाते है। (3) हां च्यार गतिमें किये कर्म मोगबनेके सिगय मोक्ष नहीं जाते है। (4) हे भगवान् ! कितनेक एसे भो नीव देखने में आते है कि अनेक प्रकारका कर्म करते है और उसो भवमें मोक्ष जाते है तो वह नीव कर्म कील जगे मोगरते है। - (3) हे गौतम । कर्मों का भोगवना दोय प्रकारसे होता है (१) भात्मपदेशोंसे (२) आत्मप्रदेशों विषाकसे, जि में विराक कर्भ तो कोई जीव मोगवे कोई जीव नहीं मी भोगवे । और प्रदेशोंसे तो आवश्य भोगना ही पड़ता है कारण कर्म बन्धमे तथा कर्म मोगवनमें अध्यवसाय निमत्त कारणभूत है जेसे कर्म का सा है और ज्ञान ध्यान तप जादिसे दीर्घ कालकि स्थितिबा कमौका आकर्षन कर स्पितिघात रसव तकर प्रदेशों मोगवा निभा कर देते है इस वातकों सर्वज्ञ अरिहंत अपने केवल ज्ञानसे जानते है, केवल दर्शनसे देखते है कि यह जीव उदय आये हुने

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