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श्रमण महानके समीप एक भी आर्य वचन भ्रमण कर परम संवेगकी श्रद्धा और धर्म पर तिब्र परिणाम ( तिव्व धम्माणु राग रते) प्रेम होनेसे धर्म, पुन्य, स्वर्ग या मोक्षका अभिलाषी शुद्ध चित, मन, लेश्या अध्यवसाय में काल करे तो वह जीव गर्म रहा हुवा भी मरके देवलोक में जा सका है।
गर्मका जीव गर्भचित रहे पसवाड़े रहे या अधोमुख रहे। माता सुती, जागती सुखी दुःखीसे पुत्र भी सुता जागता सुखी दुःखीसे, पुत्र मी सुता जागता सुखी दुःखी होता है, गर्भ प्रसव मस्तकसे या पगसे होता है। जो पापी जीव होता है वह योनीद्वार पर तीरछा आने से मृतुको प्राप्त होता है। कदाचित निकाचित अशुभ कर्मके उदयसे जीता रहे तो दु:वर्ण, दु:गन्ध, दु:रस, दुःस्पर्श, अनिष्ट क्रांति, अमनोज्ञ, हीन दीन पर, यावत अनादेय वचनवाला जो कि उसका वचन सादर कोई भी न माने यावत् महान् दुःखमें जीवन निर्गमन करनेवाला होता है अगर पूर्वे अशुभ कर्म नहीं बांधा नही पुष्ट किया हो अर्थात पूर्वे शुभ कर्म बान्धा हो वह जीव इष्ट प्रय वल्लम अच्छे सुार शब्दवाला यावत् आदय वचन जो कि सर्व लोक सादर वचनको स्वीकार करे यावत् परम सुखमें अपना जीवन निर्गमन करनेवाला होता है । इसी वास्ते अच्छे सुकृत कार्य करने कि शास्त्रकारोंने आवश्यक्ता बतलाई है । क्रमसर जिनाज्ञाका आराधन कर अक्षय सुखकि प्राप्ति हो जाने पर फीर इस घोर संसारके अन्दर जन्म ही न लेना पडे, पढे । इति । सेव भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
गर्भ
न आना