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होके उदयमें भावेगा वह प्रदेशों यथा विपाकों कर्मवेदा जावेगा तब वेदीया हुवे कर्मोकि निर्जरा होगा वास्ते चलीत कमोकि ही निज्जरा होती है इति एक नारक दंडकपर १५ द्वार हुवे वह अब २१ दंडक पर उतारा जाता है।
स्थिति चौवीस दंडकोंकि देखों प्रज्ञापन्ना सुत्र पद चोथा, शीघबोध भाग १२ वां में।
साश्वोसाश्च देखो प्रज्ञापन्ना सुत्र पद ७ वा शीघबोध भाग ३ में। माहारके सात द्वार देखों प्रज्ञापन्ना सूत्र पद २८वां शीघ. बोध भाग तीजामें। __ शेष ३६ द्वार जेसे उपर नारकीके द्वार लिख पाये है इसी माफीक चौवीस दंडकमें निर्विशेष समझना इति चौवीस दंडकपर ४५ द्वार । इस थोकडेको सुख दीर्घ द्रष्टीसे विचारों ।
से भंते सेवं भंते तमेव सचम् ।
थोकडा नम्बर । श्री भगवतीजी सूत्र शतक १ उदेशा १
(घ) हे भगवान् ! ज्ञान हे सो इस भवमें होते है ? परभमें होते है उभय भवमें भी होते है।
(उ) हे गौतम ! ज्ञान इस भवमें भी होते है परमवमें भी होते है । भावार्थ-ज्ञान है सो क्षोपसम भावमें है जहांपर ज्ञानावर्णीय कर्मका झोपशम होता है वहां पर ही ज्ञान होता है । इस भव (मनुष्य)में जो पठन पाठन कर ज्ञान किया है वह देवगतिमें जाते समय साथमें भी चल सक्ते है तथा वहां जानेके बाद भी नया ज्ञान होसके है। अर्थात्