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यह भी गुण अवश्य होना चाहिये कि-मधुरता पूर्वक आलोचक साधुकी लजा दूर करनेको स्थानांग-आदि सूत्रोंका पाठ सुनाके हृदय निर्मल बना देवे. जैसे-हे भद्र! इस लोककी लज्जा परभवमें विराधक कर देती है, रुपा और लक्षमणा साध्वीका दृष्टान्त सुनावे.
(५) शुद्ध करने योग्य होवे, आप स्वयं भद्रक भाव-अपक्षपातसे शुद्ध आलोचना करवाके, अर्थात् आलोचना करनेवालोंका गुण बतावे, आठ कारणोंसे जीव शुद्ध आलोचना करे-इत्यादि.
(६) मर्म प्रकाश नहीं करे. धैर्य, गांभीर्य, हृदयमें हो, किसी प्रकारकी आलोचना कोइभी करी हो, परन्तु कारण होने परभी किसीका मर्म नहीं प्रकाशे.
(७) निर्वाह करने योग्य हो. आलोचना अधिक आती है, और शरीरका सामर्थ्य, इतना तप करनेका न हो, उसके ली. ये भी निर्वाह करनेको स्वाध्याय, ध्यान, वन्दन, वैयावच्च-आदि अनेक प्रकारसे प्रायश्चित्तका खंड खंड कर उसको शुद्ध कर सके.
(८) आलोचना न करनेका दोष, अनर्थ, भविष्यमें विराधकपणा, संसारवृद्धिका हेतु, तथा आठ कारणोंसे जीव आलो. चना न करनेसे उत्पन्न होता दुःख यावत् संसार भ्रमण करे. ऐखा बतलावे. - (९.१०) प्रिय धर्मी और दृढ धर्मी हो, धर्म शासनपर पूर्ण राग, हाड हाड किमीजी, रग रग, नशों और रोमरोममें शासन व्याप्त हो, अर्थात् यह दोषित साधु आलोचना न करेगा, तो दुसरा भी दोष लगनेसे पीछा न हटेगा. ऐसी खराब प्रवृत्ति होनेसे भविष्यमें शासनको बडा भारी धोका पहुंचेगा. इत्यादि हिताहितका विचारवाला हो.
(श्री स्थानांगजी सूत्र-दशवे स्थाने)