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३१४ (१) अतिशय ज्ञानी ( केवली आदि ) जो भूत, भविष्य, वर्तमान-त्रिकालदर्शी हो, उन्होंके पास निष्कपट भावसे आलो-' चना करते समय अगर कोई प्रायश्चित्त स्थान, विस्मृतिसे आलो. चना करना रह गया हो, उसे वह ज्ञानी कह देवे कि-हे भद्र! अमुक दोषकी तुमने आलोचना नहीं करी है. अगर कोइ माया -कपट कर किसी स्थानकी आलोचना नहीं करी हो, तो उसे वह ज्ञानी आलोचना न देवे, और किसी छद्मस्थ आचार्यके पास आलोचना करनेका कह देवे.
(२) छद्मस्थ आचार्य आलोचना सुननेवाले कितने गुणोंके धारक होते है ? यथा
(१) पंचाचारको अखंड पालनेवाला हो, सत्तरा प्रकारसे संयम, पांच समिति, तीन.गुप्ति, दश प्रकारका यतिधर्मके धारक, गीतार्थ, बहुश्रुत, दीर्घदर्शी-इत्यादि कारण-आप निर्दोष हो, वहही दुसरोंको निर्दोष बना सके, उसकाही प्रभाव दुसरे पर पड सके.
(२) धारणावन्त-द्रव्य, क्षेत्र, काल भावके जानकार, गुरुकुल वासको सेवन कर अनेक प्रकारसे धारणा करी हो, स्याद्वादका रहस्य, गुरुगमतासे धारण कीया हो,
(३) पांच व्यवहारका जानकार हो--आगमव्यवहार, सूत्र व्ववहार, आज्ञा व्यवहार, धारणा व्यवहार, जीत व्यवहार (देखो व्यवहार सूत्र उद्देशा १० वां) किस समय किस व्ववहारसे काम लीया जावे, या-प्रवृत्ति की जावे उसका जानकार अवश्य होना चाहिये.
(४) कितनेक ऐसे जीव भी होते है कि लज्जाके मारे शुद्ध आलोचना नहीं कर सके; परन्तु आलोचना सुनने वालों में