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इसी प्रकारसे च्यार उदेशा कृष्णलेश्याका है परन्तु यहां ज्योतीषी और वैमानिक वनके । बावीस दंडक है । नारकी देव. तोंके जीतने स्थानमें कृष्ण लेश्या हो उन्हों कि आगति हो वह यथासंभव कहेना । विशेष इतना है कि मनुष्यके दंडकमे संयम, अलेशी, अक्रिया, तद्भवमोक्ष यह च्यार बोल नही कहेना कारण इस बोलोंका कृष्ण लेश्यामें अभाव है यहांपर भाव लेश्याकि अपेक्षा है । शेषाधिकारी 'ओघ' वत् इति ४१-८ __(8) एवं च्यार उदेशा निललेश्याका अपना स्थान और अगति यथा संभव कहेना शेष कृष्णलेश्यावत् इति ४१-१२
(४) एवं कापोत लेश्याका भी च्यार उदेशा परन्तु भागति तथा लेश्याका स्थान याथासंभव केहना इति ४१-१६ ।
(४) एवं तेनो लेश्याका भी च्यार उदेशा परन्तु यहां दंडक १८ है नारकीमें तेनो लेश्या नहीं है, देवतावोंमें सौधर्मशान देवलोक तक कहाना आगति पनि अपनि समझना ।
(४) एवं पद्म लेश्याका भी च्यार उदेशा परन्तु दंडक तीन है पांचवा देवलोक तक और आगति अपनि अपनि कहेना इति ।
जैन सिद्धांत स्याहाद गंभिर शैलीवाले है जेसे छटे गुणस्थान लेझ्या छ मानी गइ है यहांपर पद्म लेश्या तक संयम भी नहीं माना है । यह संभव होता है कि कृष्ण लेश्यामें संयम माना है वह व्यवहार नयकि अपेक्षा है और पद्म लेश्या तक संयम नहीं माना है वह निश्चय नयकि अपेक्षा है इस्में मि सामान्य विशेष . पक्ष होना संभव है । तत्त्व केवलीगम्यं । .....