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(५) सूक्ष्म दोषोंकी आलोचना करे, परन्तु स्थूल दोषांको आलोचना न करे.
(६) बडे जोर जोरसे शब्द करते आलोचना करे. जिससे बहुत लोक सुने, एकत्र हो जावे.
(७) बिलकुल धीमे स्वरसे बोले. जिसमें आलोचना सुननेवालोंकी भी पुरा शब्द सुनाया जाय नहीं.
(८) एक प्रायश्चित्त स्थान, बहुतसे गीतार्थों के पास आलो. चना करे. इरादा यहकि-कोनसा गीतार्थ, कितना कितना प्रायश्चित्त देता है.
(९) प्रायश्चित्त देने में अज्ञात (आचारांग, निशिथका अज्ञात ) के समीप आलोचना करे. कारण वह क्या प्रायश्चित्त दे सके ?
(१०) स्वयं आलोचना करनेवाला खुद ही उस प्रायश्चित्तं को सेवन कीया हो, उसके पास आलोचना करे. कारण-खुद प्रायश्चित्त कर दोषित है, वह दुसरोंको क्या शुद्ध कर सकेंगा? उन्हसे सच बात कवी कही न जायगी.
( स्थानांगसूत्र.) आलोचना कोन करता है ? जिसके चारित्र मोहनीय कर्मको क्षयोपशम हुवा हो, भवान्तरमें आराधक पदकी अभिलाषा रखता हो, वह भव्यात्मा आलोचना कर अपनी आत्माको पवित्र बना सके. यथा
(१) जातिवान.
(२) कुलधान्. इस वास्ते शास्त्रकारोंने दीक्षा देते समय ही प्रथम जाति, कुल, उत्तम होनेको आवश्यकता बतलाइ है.