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वन करे, अन्य कोइके पास सेवन करावे, अन्य कोइ सेवन करता हो उसे अच्छा समझे, उस मुनिको गुरु मासिक प्राय: चित्त होता है गुरुमासिक प्रायश्चित्त किसको कहते है, वह इसी निशिथ सूत्रके वीसवां उद्देशामें लिखा जावेगा.
इति श्री निशिथसूत्र - प्रथम उद्देशाका संक्षिप्त सार.
( २ ) श्री निशिथसूत्र का दूसरा उद्देशा.
( १ ) ' जो कोइ साधु साध्वी ' काष्ठकी दंडीका रजोहरण अर्थात् काष्ठकी दंडीके उपर एक सूतका तथा उनका वस्त्र लगाया जाता है, उसे ओधारीया (निशितीया) कहते है. उस ओघारीया रहित मात्र काष्ठकी दंडीका ही रजोहरण आप स्वयं करे, करावे, अनुमोदे. ( २ ) एवं काष्ठकी दंडीका रजोहरण ग्रहन करे. ३ ( ३ ) एवं धारण करे. ३ ( ४ ) एवं धारण कर ग्रामानुग्राम विहार करे. ३ ( ५ ) दुसरे साधुवोंको ऐसा रजोहरण रखनेकी अनुज्ञा दे. ३
( ६ ) आप रखके उपभोग में लेवे.
( ७ ) अगर ऐसाही कारण होनेपर काष्ठकी दंडीका रजोहरण रखा भी हो तो देढ (१|| ) मास से अधिक रखा हो.
( ८ ) काष्ठकी दंडीका रजोहरणको शोभाके निमित्त धोवे, धूपादि देवे.
भावार्थ -- रजोहरण साधुवोंका मुख्य चिन्ह है. और शास्त्रकारोंने रजोहरणको धर्मध्वज कहा है. केवल काष्ठकी दंडी होनेसे अन्य जीवोंको भयका कारण होता है. इधर उधर पडजाने से