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(१८), जहांपर अस्वाध्याययोग्य पदार्थ टटी, पैसाब, हाड, मांस, रौद्र, पंचेंद्रियका कलेवरादि ३४ अस्वाध्यायसे कोई भी अस्वाध्याय हो, वहांपर स्वाध्याय करे, करावे, भावना पूर्ववत्.
(१९), अपने अस्वाध्याय टटी, पैसाब, रौद्रादि शरीर-अशुचि हो, साध्वी ऋतुधर्ममें हो, गड, गुम्बडके रसी चीकती हो-इत्यादि अपने अस्वाध्याय होते स्वाध्याय करे, करावे, करतेको अच्छा समझे.
(२०),, हठेले समोसरणकी वाचना न दी हो, और उ. परके समोसरणकी वाचना देवे, अर्थात् जिसको आचारांगसूत्र न पढाया हो, उसे सूयगडांगसूत्रको वाचना देवे.३ सूयगडांगजी सूत्रकी याचना दी, उसे स्थानांग पूत्रको वाचना देवे.३ एवं यावत् क्रमसर सूत्रकी पाचना देना कहा है, उसको उत्क्रमशः वाचना देवे, देनेकी दुसरेको आज्ञा देवे, कन्य कोइ उस्क्रमशः आगम वा. चना देते हुवेको अच्छा समझे. वह आचार्योपाध्याय खुद प्रायचित्तके भागी होते है.
भावार्थ-जैन सिद्धांतकी संकलना शैली इसी माफिक है कि-वह आगम क्रमशः वाचनासे ही सम्यक् प्रकारसे ज्ञानकी प्राप्ति होती है. . (२१), नौ ब्रह्मचर्यका अध्ययन (आचारांगसूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध ) की वाचना न दे के उपरके सूत्रोंकी वाचना देवे, दिलाधे, देतेको अच्छा समझे.
भावार्थ-जीवादि पदार्थ तथा मुनिमार्ग, उच्च कोटिका वैराग्यसे. संपुरण भरा हुवा ब्रह्मचर्यका नौ अध्ययन है, पास्ते मोक्षमार्गमें स्थिर स्थोभ करानेके लीये मुनियोंको प्रथम आचा