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पांच मास, छे मास, छे मास, इससे उपर मायासहित, चाहे मा. यारहित हो, प्रायश्चित्त नहीं है. भावना पूर्ववत्, एवं दो सूत्र बहुवचनापेक्षा. २७-२८ सूत्र हुवे.
(२९),, चतुर्मासिक, साधिक चतुर्मासिक, पंच मासिक, साधिक पंचमासिक प्रायश्चित्त स्थान सेवन कर आलोचना करे, मायारहित तथा मायासहित. उस साधुको उपरवत् प्रायश्चित्त देके किसी बेमार तथा वृद्ध मुनियोंकी वैयावञ्च करने निमित्त स्थापन करे. अगर प्रायश्चित्त सेवन कीया, उसे संघ जानता हो तो संघके सन्मुख प्रायश्चित्त देना चाहिये, जिससे संघको प्रतीत रहे, साधुवोंको क्षोभ रहे, दुसरी दफे कोइ भी साधु, ऐसा अकृत्य कार्य न करे, इत्यादि. अगर दोष सेवनको कोई भी न जाने, तो उसे अन्दर ही आलोचना देना. उसका दोष जो प्रगट करते जितना प्रायश्चित्त, दोष सेवन करनेवालोंकों आता है, उतना ही गुप्त दोषको प्रगट करनेवालोंको होता है. कारण एसा करनेसे शासनहीलना मुनियोंपर अभाव दोष सेवनमें निःशंकता आदि दोषका संभव है. आलोचना करनेवालोंका च्यार भांगा:
(१) आचार्यमहाराजका शिष्य, एकसे अधिक दोष सेवन कर आलोचना करते समय क्रमसर पहले दोषकी पहले आलोचना करे.
( २ ) एवं पहेले सेवन कीया दोषकी विस्मृति होनेसे पीछे आलोचना करे.
(३) पीछे सेवन कीया दोषकी पहले आलोचना करे. (४) पीछे सेवन कीया दोषकी पीछे आलोचना करे, आलोचनाके परिणामापेक्षा और भी चौभंगी कहते है(१) आलोचना करनेके पहला शिष्यका परिणाम था कि