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(४९), वस्त्रको एक थेगला (कारी) लगावे, शोभाके लीये. (५०) कारन होनेपर तीन थेगलेसे अधिक लगावे. ३ (५१) अविधिसे वस्त्र सीवे. ३
( ५२ ) वस्त्रके कारन विना एक गांठ देवे.
(५३) जीर्ण वस्त्रको चलानेके लीये तीन गांठसे अधिक देवे.
( ५४ ) ममत्वभावसे एक गांठ देके वस्त्रको बांध रखे.
( ५५ ) कारन होनेपर तीन गांठसे अधिक देवे. (५६) वनको अविधिसे गांठ देवे.
(५७) मुनि मर्यादासे अधिक वखकी याचना करे. ३
( ५८ ) अगर किसी कारणसे अधिक वस्त्र ग्रहन कीया है, उसे देढ मास से अधिक रखे. ३
भावार्थ- - वस्त्र और पात्र रखते है, वह मुनि अपनी संयमयात्राका निर्वाहके लीये ही रखते है. यहांपर पात्र और वस्त्रके सूत्र बतलाये है. उसमें खास तात्पर्य प्रमादकी तथा ममत्वभाकी वृद्धि न हो और मुनि हमेशां लघुभूत रहके स्वहित साधन करे..
(५९),, जिस मकान में साधु ठेरे हो, उस मकान में धुवा जमा हुवा हो, कचरा जमा हुवा हो, उसे अन्यतीर्थीयों तथा उन्होंके गृहस्थोंसे लीरावे, साफ करवावे. ३
(६०), पूतिकर्म आहार - एषणीय, निर्दोष आहारकी अन्दर एक सीत मात्र भी आधाकर्मी आहार की मिल गई हो, अथवा सहस्र घरके अन्तरे भी आधाकर्मी आहारका लेप भी शुद्ध आहार में मिश्रित हो, ऐसा आहार ग्रहन करे. ३
उपर लिखे हुवे ६० बोलोंसे कोइभी बोल मुनि स्वयं से