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भावार्थ-जैसे चारण, भाट, भोजकादि, दातारोकी तारीफ करते है, उसी माफीक साधुवाँको न करना चाहिये. वस्तुतत्व स्वरुप अवसरपर कह भी सक्ते है.
(३९) ,, शरीरादि कारणसे स्थिरवास रहे हुवे तथा ग्रामानुग्राम विहार करते हुवे जिस नगरमें गये है. वहांपर अपने संसारी पूर्व परिचित जैसे मातापितादि पीछे सासु सुसरा उन्होंके घरमें पहिले प्रवेश कर पीछे गौचरी जावे. ३
भावार्थ--पहिले उन लोगोंको खवर होने से पूर्व स्नेहके मारे सदोष आहारादि बनावे. आधाकर्मी आहारका भी प्रसंग होता है.
(४०), अन्य तीर्थीयोंके साथ, गृहस्थों के साथ, प्रायश्चित्तीये साधुवोंके साथ तथा मूल गुणोंसे पतित ऐसे पासत्थादिके साथ, गृहस्थोके वहां गौचरी जावे. ३
भावार्थ-अन्य तीर्थीयादिके साथ जानेसे लोगोंको शंका होगी कि-यह सब लोग आहार एकत्र ही लाते होंगे, एकत्र ही करते होंगे. अथवा दुसरेकी लजासे दबावसे भी आहारादि देना पडे. इत्यादि.
(४१) एवं स्थंडिल भूमिका तथा विहारभूमि (जिनमन्दिर) (४२ ) एवं ग्रामानुग्राम विहार करना. भावना पूर्ववत्.
(४३) , मुनि समुदाणी भिक्षाकर स्थानपर आके अच्छा सुगन्धि पदार्थका भोजन करे और खराब दुर्गन्धि भोजनको परठे. ३
(४४ ) एवं अच्छा नीतरा हुवा पाणी पीये और खराब गुदला हुवा पाणी परठे. ३
(४५), अच्छा सरस भोजन प्राप्त हो, वा आप भोजन