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२१० (२२) ,, अखंडित चर्म अर्थात् संपूर्ण चर्म मृगछालादि . रखे. ३
भावार्थ-विशेष कारण होनेपर साधु चर्मकी याचना करते है, वह भी एक खंडे सारखे.
(२३), संपूर्ण वन रखे. ३
भावार्थ-संपूर्ण वस्त्रको प्रतिलेखन ठीक तौरपर नहीं होती है, चौरादिका भय भी रहता है.
(२४),, अगर संपूर्ण वस्त्र लेने का काम भी पड जाये, तो भी उसको काममें आने योग टुकडे कीया विगर रखे. ३ ।।
(२५), तुंबा, काष्ठ, मट्टीका पात्रको आप स्वयं घसे, समारे, सुन्दर आकारवाला करे. ३
भावार्थ-प्रमादादिकी वृद्धि और स्वाध्याय ध्यान में वित्र होता है.
(२६) एवं दंड, लठ्ठी, खापटी, वंस, सुइ स्वयं घसे, समारे, सुन्दर बनावे. ३ - (२७) , साधुषों के पूर्व संसारी न्यातोले थे, उन्हों की सहायतासे पात्रकी याचना करे. ३
(२८), न्यातीके सिवाय दुसरे लोगों की सहायतासे पात्रकी याचना करे.
(२९) कोइ महान् पुरुष (धनाढ्य) तथा राजसतावालाकी सहायतासे
(३०) कोइ बलवानकी सहायतासे.
( ३१ ) पात्र दातारको पात्रदानका अधिकाधिक लाभ बतलाके पात्र याचे.३