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करनेपर आहार बढ जावे और दो कोशकी अन्दर एक मंडलेके उस भोजन करनेवाले स्वधर्मी साधु हो, उसको विगर पूछे वह आहार परठे. ३
भावार्थ-जबतक साधुवोंको काम आते हो, वहांतक परठना नहीं चाहिये. कारण-सरस आहार परठनेसे अनेक जीवोंकी विराधना होती है.
( ४६ ,, मकान के दातारको शय्यातर कहते है. उस शय्यातरका आहार ग्रहण करे.
(४७) शय्यातरका आहार विना उपयोगसे लीया हो, खबर पडनेपर शय्यातरका आहार भोगवे. ३
(४८), शय्यातरका घर पूछे विगर गवेषणा कीये विगर गौचरी जावे. ३ कारन-न जाने शय्यातरका घर कौनसा है. पहलेके आहारके सामेल शय्यातरका आहार आ जावे, तो सब आहार परठना पडता है.
(४९) ,, शय्यातरकी निश्रासे अशनादि च्यार प्रकारका आहार ग्रहन करे. ३
भावार्थ-मकानका दातार चलके घर बतावे. दलाली करे, तो भी साधुको आहार लेना नहीं करै. अगर लेवे तो प्रायश्चित्तका भागी होता है.
(५०), ऋतुबद्ध चौमास पर्युषणा तक भोगवने के लीये पाट, पाटला, तृणादि संस्तारक लाया हो, उसे पर्युषणाके बाद भोगवे. ३
(५१) अगर जन्तु आदि उत्पन्न हुवा हो तो, दश रात्रिके बाद भोगवे. अर्थात् जन्तुवोंके लीये दशरात्रि अधिक भी रख सके.
(५२) ,, पाट पाटला वर्षादमें पाणीसे भीजता हो, उसे उठाके अन्दर न रखे. ३