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जीवोंकों अबीतक शस्त्र, नहीं प्रणम्या है, जीव प्रदेशोंकी सत्ता नष्ट नहीं हुई है, अर्थात् वह पाणी अचित्त नहीं हुवा है, ऐसा पाणी साधु प्रहन करे. ३ *
(२५२ ) ,, कोइ साधु अपने शरीरको देख, दुनीयाको कहेकि- मेरेमें आचार्यका सर्व लक्षण है. अर्थात् मुझे आचार्यपद दो-ऐसा कहे. ३
भावार्थ-आत्मश्लाघा करनेसे अपनी कीमत कराना है.
( २५३) ,, रागदृष्टि कर गावं, वाजिंत्र बजावे, नटोंकी माफिक नाचे. कूदे, अश्वकी माफिक हणहणाट करे, हस्तीकी माफिक गुलगुलाट करे, सिंहकी माफिक सिंहनाद करे, करावे३
भावार्थ-मुनियोंको ऐसा उन्माद कार्य न करना, किन्तु शांतवृत्ति से मोक्षमार्गका आराधन करना चाहिये.
( २५४),, भेरीका शब्द, पटहका शब्द, मुंहका शब्द, मादलका शब्द, नदीघोषका शब्द. झलरीका शब्द, वल्लरीका शब्द, डमरु, मटूया, शंख, पेटा, गोलरी, और भी श्रोत्रंद्रियको आकर्षित करनेकी अभिलाषा मात्र भी करे. ३
(२५५ ) ,, वीणाका शब्द, त्रिपंचीका शब्द, कूणाका, पापची वीणा, तारकी वीणा, तुबीकी वीणा, सतारका शब्द, ढंकाका शब्द, और भी वीणा-तार आदिका शब्द, श्रोत्रंद्रियको उन्मत्त बनानेवाले शब्द सुननेकी अभिलाषा मात्र करे. ३
( २५६) ,, ताल शब्द, कांसीतालके शब्द, हस्ततालादि,
* एक जातिका धोवण में दुसरी जातीका धोवण मीला देनेसे अगर विस्पर्श होतों त्रसजीवों कि उत्पती हो जाती है ढुंढक भाइयोंकों इसपर ख्याल करना चाहिये.
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