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२७१ (१४) श्री निशिथसूत्र-चौदवां उद्देशाः
(१) 'जो कोइ साधु साध्वी ' को गृहस्थलोगपात्र-मूल्यलाके देवे ,तथा अन्य किसीसे मूल्य दिलावे. देतेको सहायता कर मूल्यका पात्र साधु साध्वीयोंको देवे, उस अकल्पनीय पात्रको साधु साध्वी ग्रहन करे, शिष्यादिसे ग्रहन करावे, अन्य कोइ ग्रहन करते हुवे साधुको अच्छा समझे.
(२) एवं साधु साध्वीके निमित्त पात्र उधारा लाके देवे, उसे ग्रहन करे. ३
(३) एवं सलटा पलटा करदेवे. ३
(४) एवं निर्बलसे सबल जबरजस्तीसे दिलावे, दो भागीदारोंका पात्रमें एकका दिल नहीं होने पर भी दुसरा देवे तथा सामने लायके देवे, उसे ग्रहन करे. ३
(५), किसी देशमें पात्रोंकी प्राप्ति नहीं होती हो, और दुसरे देशोंमे निरवद्य पात्र मिलते हो, वहांसे साधु, गणि ( आचार्य) का उद्देश, अर्थात् आचायके नामसे, अपने प्रमाणसे अधिक पात्र ग्रहन कीया हो, वह पात्र आचार्यको आमंत्रण न करे, आचार्यको पछे विगर अपनी इच्छानुसार दुसरे साधुको देबे, दिलावे. ३ ... भावार्थ-सत्य भाषाका भंग, अविश्वासका कारण, साथमें क्लेशका कारण भी होता है. .. (६), लघु शिष्य शिष्यणी, स्थविर-वयोवृद्ध साधु साध्वी, जिसका हाथ, पग, कान, नाक, होठ आदि अवयव छेक्षा हुवा नहीं है, बेमार नहीं है, अर्थात् वह शक्तिमान है, उसको परिमाणसे अधिक पात्र देवे, दिलावे, देतोंको अच्छा समझे.