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दोषित साधुधोंको हितबुद्धि से आलोचना करवाके ही उन्होंके साथ आलाप संलाप करने की ही शास्त्रकारोंकी आज्ञा है.
(३३), सूर्योदय होने के बाद तथा सूर्य अस्त होने के पहला मुनियोंकी भिक्षावृत्ति है. साधु नीरोगी है, और सूर्योदय होने में तथा अस्त न होने में कुच्छ भी शंका नहीं है. उस समय भिक्षा ग्रहन कर, लायके भोजन करनेको बैठा, तथा भोजन करते बखत स्वयं अपनी मतिसे तथा दुसरे गृहस्थोंके वचन अषण करनेसे ख्याल हुवा कि-यह भिक्षा सूर्योदय पहला तथा सूर्य अस्त होने के बाद में ग्रहन की गइ है. (अति बादल तथा पर्वता. दिकी व्याघातसे) ऐसी शंका होने पर मुंहका भोजन थुकके साफ करे, पात्राका पात्रामे रखे. हाथका हाथमें रखे. अर्थात् उस सब आहारको एकान्त निर्जीव भूमिपर विधिपूर्वक परठे, तो भगवानकी आज्ञाका अतिक्रम न हुवे, (परिणाम विशुद्ध है . अगर शंका होनेपर भी आप भोगवे तथा अन्य किसी साधुवोको देवे, तो वह मुनि, रात्रिभोजनके दोषका भागी होता है. उसे चातुर्मासिक प्रायश्चिच देना चाहिये.
(३४) ,, इसी माफिक साधु निरोगी है, परन्तु सूर्योदय होने में तथा अस्त होनेमें शंका है, यह दो सूत्र निरोगीका कहा. इसी माफिक दो सूत्र रोगी साधुवोंका भी समझना. ( ३५-३६ ) - भावार्थ-किसी आचार्यादिकी वैयावच्चमें शीघ्रतासे जाना पडे, छोटे गामोंमें दिनभर भिक्षाका योग न बना, दिवसके अन्त. में किसी नगर में पहुंचे, उस समय बादल बहुत है, तथा पर्वतकी व्याघात होनेसे ऐसा मालुम होता है कि--अबी दिन होगा तथा पहले दिन भिक्षाका योग नहीं बना. दुसरे दिन सूर्योदय होते ही क्षुधा उपशमानेके लीये तथा विशेष पिपासा होनेसे, छास