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(१०९), पात्रा याचने निमित्त दोय कोश उपरांत गमन करे, गमन करावे, गमन करनेको अच्छा समझे.३
(११०) एवं दोय कोश उपरांतसे सामने दोय कोशकी अन्दर लायके देवे, उस पात्रको मुनि ग्रहन करे. ३ __ (१११),, श्रीजिनेश्वर देवोंने सूत्रधर्म द्वादशांगरुप ), चारित्रधर्म (पंचमहाव्रतरुप', इस धर्मका अवगुणवाद बोले, निंदा करे, अयश करे, अकीर्ति करे. ३
(११२ ) ,, अधर्म, मिथ्यात्व, यज्ञ, होम, ऋतुदान, पिंडदान, इत्यादिकी प्रशंसा-तारीफ करे. ३ . ___ भावार्थ-धर्मकी निन्दा और अधर्मकी तारीफ करनेसे जी. वोंकी श्रद्धा विपरीत हो जाती है. वह अपनी आत्मा और अनेक पर आत्मावोंको डुबाते हुवे और दुष्कर्म उपार्जन करते है.
(११३ ) , जो कोइ साधु साध्वी, जो अन्यतीर्थी तापसादि और गृहस्थ लोगोंके पावोंको मसले, चंपे, पुजे. यावत् तीसरा उद्देशाने पावोंसे लगाके ग्रामानुग्राम विहार करते हुवेके शिरपर छत्र करनेतक ५६ सूत्र वहांपर साधु आश्रित है, यहांपर अन्यतीर्थी तथा गृहस्थ आश्रित है. इति १६८ पूत्र हुवे,
(१६९ ,, साधु आप अन्धकाराहि भयोत्पत्तिके स्थान नाके भय पामे.
(१७० ) अन्य साधुवोंको भयोत्पत्तिके स्थान ले जाय के भयोत्पन्न करावे.
(१७१ ) स्वयं कुतूहलादि कर विस्मय पामे. ( १७२ ) अन्य साधुवोंको विस्मय उपजावे. ( १७३ ) स्वयं संयमधर्मसे विपरीत बने.