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भावार्थ-- प्रगट आहार निहार करनेसे मुनि दुर्लभबोधी पना उपार्जन करता है वास्ते टटी पेशाबके लीये दुर जाना चाहिये.
(८२) ,, अपने निश्राके तथा परनिश्राके मात्रादिका भाजनमें दिनको, रात्रिको, या विकालमें अतिबाधासे पीडित, उस मात्रादिके लघुनीत, वडीनीत कर सूर्य अनुदय अर्थात् जहांपर दिनको सूर्यका प्रकाश नहीं पडते हो, ऐसा आच्छादित स्थानपर परठे, परिठावे, परिठतेको अच्छा समझे.
भावार्थ-द्रव्यसे जहां सूर्य का प्रकाश पडते हो, और भावसे परिठनेवाले मुनिके हृदय कमलमें ज्ञान (परिठने की विधि) सूर्य प्रकाश कीया हो-ऐसे दोनों प्रकारके सूर्योदय न हुवा मुनि परठे तो प्रायश्चितका भागी होता है. कारण-रात्रिमें मात्रादि कर साधु सूर्योदय हो इतना बखत रख नहीं सक्ते है. क्योंकि उस पेसाब आदिमें असंख्य संमूर्छिम जीवोंकी उत्पत्ति होती है. इस घास्ते उक्त अर्थ संगतिको प्राप्त करता है.
उक्त ८२ बोलोंसे एक भी बोल सेवन करनेवाले साधु साध्वीयोंको लघुमासिक प्रायश्चित्त होता है. विधि देखो वीसवांउद्देशासे.
इति श्री निशिथसूत्र-तीसरा उद्देशाका संक्षिप्त सार.
(४) श्री निशिथसूत्र-चौथा उद्देशा. (१) 'जो कोइ साधु साध्वीयों' राजाको अपने वश करे, करावे, करतेको अच्छा समझे.
(२) एवं राजाका अर्चन-पूजन करे. ३
(३) एवं अच्छा द्रव्यसे वस्त्र, भूषण, भावसे गुणानुवादादि बोलना.३