________________
२११
भावार्थ-साधु दीनता से उक्त न्यातीलादिकों कहे कि -हमारे पात्रकी जरुरत है. आप साथ चलके मुझे पात्र दीला दो. आप साथमें न चलोगे, तो हमे पात्र कोइ न देगा तथा न्याती - लादि साधुवोंके लीये पात्रयाचनाकी कोशीष कर, साधुको पात्र दलावे. अर्थात् मुनियोंको पराधीन न होना चाहिये. नित्यपिंड ( आहार ) भोगवे. ३
"
( ३२ ) . ३३ ) अग्रपिंड अर्थात् पहेले उतरी हुई रोटी आदिको गृहस्थ, गाय कुत्ते को देते है-- ऐसा आहार भोगवे. ३
""
")
( ३४ ) हमेशां भोजन बनावे उसे आधा भाग दानार्थ नीकलते हो, ऐसा आहार तथा अपनी आमदानीसे आधा हिस्सा पुन्यार्थ निकाले, उससे दानशालादि खोले. पेसा आहार लेवे. ३
"
( ३५ ) नित्य भाग अर्थात् अमुक भागका आहार दीनादिको देना - ऐसा नियम कीया हो, ऐसा आहार लेवे - भोगये. ३
( ३६ ) ११
३
भोगवे.
पुन्यार्थ नीकाला हुवा आहारसे किंचित् भाग भी
भावार्थ- जो गृहस्थ दानार्थ, पुन्यार्थ निकाला भोजन दोन गरीबों को दीया जाता है. उसे साधु ग्रहन करनेसे उस भिक्षाचर लोगोंको अंतराय होगा. अथवा अन्य भी आधाकर्मी, उद्देशिक आदि दोषका भी संभव होगा.
fare पकही स्थान में निवास करे. ३
( ३७ ),, भावार्थ - विगर कारण एक स्थानपर रहने से गृहस्थ लोगोंका
परिचय बढ जानेपर रागद्वेषकी वृद्धि होती है.
पहले अथवा पीछे दानेश्वर दातारकी तारीफ
グ
( ३८ ) ( प्रशंसा ) करे. ३