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१७७ (२३) इसी माफिक मकान बेचनेके विषयमें समझना.
(२४) साधु जिस मकानमें ठेरे, उस मकानकी आज्ञा प्रथम लेना चाहिये. अगर कोइ गृहस्थकी नित्य निवास करनेवाली विधवा पुत्री हो, तो उसकी भी आज्ञा लेना कल्पै, तो फिर पिता पुत्रादिकी आज्ञाका तो कहना ही क्या? सुहागण अनित्य निवासवाली पुत्रीकी आज्ञा नहीं लेना. कारण उनका सासरा कहा है: कभी उनके हाथसे आहार ग्रहन करनेमे आवे, तो शय्यातर दोष लग जावे, परन्तु विधवा नित्य निवास करनेवाली पुत्रीकी आज्ञा ले सकते है.
(२५) रहस्ते में चलते चलते कभी वृक्ष नीचे रहनेका काम पडे, तो भी गृहस्थोंकी आज्ञा लेना. अगर कोइ न मिले, तो पहले वहां पर ठेरे हुवे मुसाफिरकी भी आज्ञा लेके ठेरना.
( २६ ) जिस राजाके राज्यमें मुनि विहार करते हो, उस राजाका देहान्त हो गया हो, या किसी कारणसे अन्य राजाका राज्याभिषेक हुवा हो, परन्तु आगेके राजाकी स्थितिमें कुछ भी फेरफार नहीं हुवा हो, तो पहलेकी लीइ हुइ आज्ञामें ही रहना चाहिये. अर्थात् फिरसे आज्ञा लेनेकी जरुरत नहीं है.
(२७) अगर नये राजाका अभिषेक होनेपर पहलेका कायदा तोड दीया हो, नये कायदे बांधा हो, तो साधुवोंको उस राजाकी दुसरीवार आज्ञा लेना चाहिये कि-हम लोग आपके देशम विहार कर, धर्मोपदेश करते है. इसमें आपकी आज्ञा है ? कारण कि साधु विगर आज्ञा विहार करे, तो तीसरा व्रतका रक्षण नहीं होता है. चौरी लगती है. वास्ते अवश्य आज्ञा लेके विहार करना चाहिये. इति. .. श्री व्यवहार सूत्र-सातवां उद्देशाका संक्षिप्त सार.