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१८८ . [२] यवमध्यम चंद्रप्रतिमा-यवका आदि अन्त पतला
और मध्य भाग विस्तारवाला होता है. इसी माफिक मुनि तपश्चर्या करते है. जिसमें यवमध्यचंद्र प्रतिमा धारण करनेवाले मुनि एक मास तक अपने शरीर संरक्षणका त्याग कर देते है. जो देव मनुष्य तिर्यंच संबंधी कोई भी परीसह उत्पन्न होते है उसे सम्यक् प्रकारसे सहन करते है. वह परीसह भी दो प्रकारके होते है. [१] अनुकुल-जो वन्दन, नमस्कार पूजा सत्कार करनेसे
राग केसरी खडा होता है. अर्थात् स्तुतिमें हर्ष नहीं. [२] प्रतिकूल-दंडासे मारे, जोतसे, बेंतसे मारे पीटे, आ.
क्रोश वचन बोले, उस समय द्वेष गजेन्द्र खडा होता है. इस दोनों प्रकारके परीषहको जीते यवमध्यम प्रतिमा धारी मुनिको शुक्लपक्षकी प्रतिपदाको एक दात आहार और एक दात पाणी लेना कल्पै. दुजको दो दात, तीजको तीन दात, यावत् पर्णिमाको पंद्रह दात आहार और पंद्रह दात पाणी लेना कल्पै. आहारकी विधि जो ग्राम, नगरमें भिक्षाचर भिक्षा लेकर निवृत्त हो गये हो, अर्थात् दो प्रहर ( दुपहर ) को भिक्षाके लीये जावे. चंचलता, चपलता, आतुरता रहित जो एकेला भो. जन करता हो, दुपद, चतुष्पद न बंछे ऐसा नीरस आहार हो, सोभी एक पग दरवाजाकी अन्दर, और एक पग दरवाजाके बाहार, वह भी खरडे हाथोंसे देवे, तो लेना कल्पै. परन्तु दो, तीन, यावत् बहुतसे जन एकत्र हो, भोजन करते हो वहांसे न कल्पै. बालकके लीये, गर्भवतीके लीये, ग्लानके लीये कीया हुवा भी नहीं कल्पै. बचावोंको दुध पान करातीको छोडाके देवे तो भी नहीं कल्पै. इत्यादि एषणीय आहार पूर्ववत् लेना कल्पै.