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१८७ [१] काष्ठके भाजनमें लाके देवे ऐसा आहार ग्रहन करना. [२] शुद्ध हाथ, शुद्ध भोजन चावल आदि मिले तो
ग्रहन करना. [३] भोजनादिसे खरडे हुवे (लिप्त ) हाथोंसे आहार
देवे तो ग्रहन करना. (४६) तीन प्रकारके अभिग्रह[१] भाजनमें डालता हुवा आहार देवे, तो ग्रहन करूं. [२] भाजनसे निकालता हुवा देवे तो ग्रहन करूं. [३] भोजनका स्वाद लेनेके लीये प्रथम ग्रास मुंहमें
डालता हो, वैसा आहार ग्रहन करूं. तथा ऐसा भी कहते है-ग्रहन करता हुवा तथा प्रथमग्रास आस्वादन करता हुवा देवे तो मेरे आहारादि ग्रहन करना. अभिग्रह करनेपर वैसाही आहार मिले तो लेना, नहीं तो अनादरपणे ही परीसहरुप शत्रुओंका पराजय कर मोक्षमार्गका साधन करते रहना. इति. .
श्री व्यवहार मूत्र नोवां उद्देशाका संक्षिप्त सार.
(१०) दशवां उद्देशा. (१) भगवान् वीर प्रभुने दोय प्रकारकी प्रतिमा (अभि
ग्रह ) फरमाह है. [१] वन मध्यम चंद्रप्रतिमा-बजका आदि और अन्त वि.
स्तारवाला तथा मध्य भाग पतला होता है.