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(२) सूत्रव्यवहार-अंग, उपांग, मूल, छेदादि जिस काल में जितने पूत्र हो, उसके अनुसार प्रवृत्ति करना, उसे सूत्र व्यवहार कहते है.
(३) आज्ञाव्यवहार-कितनी एक बातोंका सूत्रमें प्रतिपा. दन भी नहीं है, परन्तु उसका व्यवहार पूर्व महर्षियोंकी आज्ञासे ही चलता है.
(४) धारणाव्यवहार-गुरुमहाराज जो प्रवृत्ति करते थे, आलोचना देते थे, तब शिष्य उस बातकी धारणा कर लेते थे. उसी माफिक प्रवृत्ति करना यह धारणा व्यवहार है.
(५) जीतव्यवहार-जमाना जमानाके बल, संहनन, शक्ति, लोकव्यवहार आदि देख अशठ आचार, शासनको पथ्यकारी हो, भविष्य में निर्वाहा हो, ऐसी प्रवृत्तिको जीतव्यवहार कहते है.
आगम व्यवहारी हो, उस समय आगम व्यवहारको स्थापन करे, शेष च्यारों व्यवहारको आवश्यक्ता नहीं है. आगम व्यवहारके अभावम सूत्र व्यवहार स्थापन करे, सूत्र व्यवहारके अभावमें आज्ञा व्यवहार स्थापन करे, आज्ञा व्यवहारके अभावमें धारणा व्यवहार स्थापन करे, धारणा व्यवहारके अभावमें जीत व्यवहार स्थापन करे.
प्रश्न-हे भगवन् ! एसे किस कारणसे कहते हो ?
उत्तर--हे गौतम ! जिस जिस समय में जिस जिस व्यवहारकी आवश्यक्ता होती है, उस उस समय उस उस व्यवहार माफिक प्रवृत्ति करनेसे जीव आज्ञाका आराधक होता है.
भावार्थ-व्यवहारके प्रवृतानेवाले निःस्पृही महात्मा होते