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भोगवे, तो गृहस्थकी और तीर्थंकरोंकी चोरी लगे. गृहस्थोंसे आज्ञा लेनेको जानेसे गृहस्थोंको अप्रतीत हो कि-क्या मुनिकों इस वस्तुका लोभ होगा. वास्ते वह मुनि मिले तो उसे दे देना, नहीं तो एकान्त भूमिपर परठ देना. इस्मै भी आज्ञा लेनेवालोंमें अधिक योग्यता होना चाहिये.
(१४ ) एक देशमें पात्र फासुक मिलते हो, दुसरे देशमें विचरनेवाले मुनियोंको पात्रकी जरुरत रहती है, तो उस मुनि. योंके लीये अधिक पात्र लेना कल्पै. परन्तु जबतक उस मुनिको नहीं पूछा हो, वहांतक वह पात्र दुसरे साधुवोंको देना नहीं कल्पै. अगर उस मुनिको पूछनेसे कहे कि-मेरेको पात्रकी जरुरत नहीं है. आपकी इच्छा हो, उसे दीजीये, तो योग्य साधुको वह पात्र देना कल्पै.
(१५) अपने सदैव भोजन करते है, उस भोजनके ३२ वि. भाग करना (कल्पना करना.) उसमें अष्ट विभाग आहार कर. नेसे पौण उणोदरी, सोल विभाग करनेसे आधी उणोदरी, चो. वीश विभाग भोजन करनेसे पाव उणोदरी, एक विभाग कम भोजन करनेसे किंचित् उणोदरी तथा एक चावल (सीत) खानेसे उत्कृष्ट उणोदरी कही जाती है. साधु महात्मावोंको सदैवके लीये उणोदरी तप करना चाहिये. इति.
श्री व्यवहारसूत्र-आठवां उद्देशाका संक्षिप्त सार.