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१७८ (८) आठवां उद्देशा. (१) आचार्य महाराज अपने शिष्य संयुक्त किसी नगरमें चातुर्मास कीया हो, वहांपर गृहस्यों के मकान में आज्ञासे ठेरे है. उसमें कोई साधु कहे कि-हे भगवन् ! इस मकानका इतना अन्दरका मकान और इतना बहारका मकान में मेरी निश्रामें रखु ? आचार्यश्री उस साधुकी अशठता-सरलता जाणे कि-यह तपस्वी है, बीमार है, तो उतनी जगहकी आज्ञा देवे तो उस मुनिकों वह स्थान भोगवना कल्पै. अगर आचार्य श्री जाणे कि -यह धूर्त. तासे आप सुखशीलीयापणासे साताकारी मकान अपनी निश्राम रखना चाहता है. तो उस जगहकी आज्ञा न दे, और कहे कि हे आय ! पेस्तर रत्नत्रयो दिसे वृद्ध साधु है, उन्होंके क्रमसर स्थान देने पर तुमारे विभागमें आवे उस मकानको तुम भोगवना. तो स मुनिको जैसी आचार्य श्री आज्ञा दे, वैसाही करना कल्पै.
(२) मुनि इच्छा करे कि-मैं हलका पाट, पाटला, तृणादि, शय्या. संस्तारक, गृहस्थोंके वहांसे याचना कर लाऊं तो एक हाथ से उठा सके तथा रहस्ते में एक विश्रामा, दोय विश्रामा, तीन विश्रामा लेके लाने योग्य हो, ऐसा पाट पाटला शीतोष्ण कालके लीये लावे.
भावार्थ-यह है कि प्रथम तो पाट पाटला ऐसा हलकाही लाना चाहिये कि जहां विश्रामाकी आवश्यक्ता ही न रहै. अगर ऐसा न मिले तो एक दो तीन विश्रामा खाते हुवे भी एक हाथसे लाना चाहिये.
(३) पाट पाटला एक हाथसे वहन कर उठा सके ऐसा एक दो तीन विश्रामा लेके अपने उपाश्रय तक ला सके. ऐसा जाने कि-यह मेरे चातुर्मासमें काम आवेगा भावना पर्ववत.