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१५८ रात्रिसे अधिक नहीं रहना. अगर रोगचिकित्सा होनेपर एक दोय रात्रिसे अधिक ठहरे, तो जितना दिन ठहरे, उतना ही दिनोंका छेद तथा तप प्रायश्चित्त होता है.
भावार्थ-आचारांग और निशीथ लूत्रके जानकार हो वह मुनि ही मुनिमार्गको ठीक तौरपर चला सकता है. अपठितोंके लीये रहस्ते में एक दोय रात्रिसे अधिक ठहरना भी शास्त्रकारोंने बिलकुल मना कीया है. कारण-लाभके बदले बडा भारी नुकशान उठाना पड़ता है. चारित्र तो क्या परन्तु कभी कभी सम्यक्त्व रत्न ही खो बेठना पडता है, वास्ते आचारांग और निशी. यके अपठित साधुवोंको आगेवान होके विहार करनेकी साफ मनाइ है.
(१२) इसी माफिक चातुर्मास रहे हुवे साधुवोंके आगेवान मुनि काल करनेपर दुसरा आचारांग-निशीथके जानकार हो तो उसकी निश्राय रहना. अगर ऐसा न हो तो चातुर्मासमें भी विहार कर, अन्य साधु जो आचारांग-निशीथका जानकार हो, उन्होंके पास आ जाना चाहिये, परन्तु एक दोय रात्रिसे अधिक अपठित साधुवोंको रहने की आज्ञा नहीं है. स्वेच्छासे रह भी जावे, तो जितने दिन रहे, उतने दिन का छेद तथा तपप्रायश्चित्त होता है. भावना पूर्ववत्.
(१३) आचार्योपाध्याय अन्त समय पीछले साधुवोंको कहे कि-हे आर्य! मेरा मृत्युके बाद आचार्यपदवी अमुक साधुको दे देना. एसा कहके आचार्य कालधर्म प्राप्त हो गये. पीछेसे माधु (संघ) उस साधुको आचार्योपाध्याय परोके योग्य जाने तो उसे आचार्योपाध्याय पद्वी दे देवे, अगर वह साधु पीके योग्य नहीं है, ( आचार्य रागभावसे ही कह गये हो.) अगर गच्छमें