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शुद्ध कर आप रख भी सके.कारण समयीको महायता देना बहुत लाभका कारण है. और योग्य हो तो उसे स्वल्प काल तथा जावजीव तक आचार्यादि पद्वी भी देना कल्पै. इति.
श्री व्यवहारसूत्र-छठा उद्देशाका संक्षिप्त सार.
(७) सातवां उद्देशा. (१) साधु साध्वीयोंके आपसमें अशनादि बारह प्रकारके संभोग है. अर्थात् साधुवोंकी आज्ञामें विहार करनेवाली साध्वीयों है. उन्हों के पास कोई अन्य गच्छसे निकलके साध्वी आइ है. आनेवाली साध्वीका आचार खंडित यावत् उसको प्रायश्चित्त दीया विना स्वल्पकालकी या चिरकालकी पट्टी देना साध्वीयोको नहीं कल्पै.
(२) साधुवोंको पूछ कर, उस आइ हुइ साध्वीको प्रायश्चित्त देके यावत् स्वल्पकाल या चिरकालकी पद्वी देना साध्वी. योको कल्पै. .
(३) साध्वीयोंको विना पूछे साधु उस साध्वीको पूर्वोक्त प्रायश्चित्त नहीं दे सके. कारण-आखिर साध्वीयोंका निर्वाह क. रना साध्वीयोंके हाथ में है. पीछेसे भी साध्वीयोंकी प्रकृति नहीं मिलती हो, तो निर्वाह होना मुश्कील होता है. .
(४) साधु, साध्वीयोंको पूछ कर, उस साध्वीकी आलोचना सुन, प्रायश्चित देके शुद्ध कर गच्छमें ले सके, यावत् योग्य हो तो प्रवर्गणी या गणविच्छेदणीकी पद्वी भी दे सके. - (५) साधु साध्वीयोंके बारह प्रकारका संभोग है. अगर साध्वीयों गच्छ मर्यादाका उल्लंघन कर अकृत्य कार्य करे (पासत्था