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१६२ (२०) विना आज्ञा विहार करे, तो एक दोय तीन च्यार पांच रात्रिसे अपने स्थविरों को देखके सत्यभावसे आलोचना -प्रतिक्रमण कर, यथायोग्य प्रायश्चित्तको स्वीकार कर पुनः स्थ. विरोंकी आज्ञा रहे, किन्तु हाथकी रेखा सुके वहांतक भी आज्ञा बहार न रहै. आज्ञा है वही प्रधान धर्म है.
(२१) आज्ञा बहार विहार करते को च्यार पांच रात्रिसे अधिक समय हो गया हो, बाद में स्थविरोको देख सत्यभावसे आलोचना-प्रतिक्रमण कर, जो शास्त्र परिमाणसे स्थविरों तप, छेद, पुनः उत्थापन प्रायश्चित्त देवे, उसे सविनय स्वीकार करे. दुसरी दफे आज्ञा लेके विचरे. जो जो कार्य करना हो, वह सब स्थविरोंकी आज्ञासे ही करे, हाथ की रेखा सुके वहांतक भी आज्ञाके बहार नहीं रहै. तीसरा महाव्रतकी रक्षा के निमित स्थविरोंकी आज्ञाको यावत् काया कर स्पर्श करे. एवं.
( २२ ) ( २३ ) दो अलापक विहारसे निवृत्ति होने का है.
भावार्थ-इस च्यारों सूत्रों में स्थविरोंकी आज्ञाका प्रधानपणा बतलाया है. स्थविरोंकी आज्ञाका पालन करनेसे ही मुनियोंका तीसरा व्रत पालन हो सकता है.
( २४ ) दो स्वधर्मी साथमें विहार करते है. जिसमें एक शिष्य है, दुसरा रत्नत्रयादिसे गुरु है. शिष्यको श्रुतज्ञान तथा शिष्यादिका परिवार बहुत है, और गुरुको स्वल्प है. तदपि शिष्यको गुरुमहाराजका विनय वैयावञ्चादि करना, आहार, पाणी, वस्त्र, पात्रादि अनुकूलतापूर्वक लाके देना कल्पै. गुरुकुल वास रह के उन्होंकी सेवा-भक्ति करना कल्पै. कारण-जो परिवार है, वह सब गुरुकृपाका ही फल है..
(२५) और जो शिष्यको श्रुतज्ञान तथा शिष्यादिका