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परिवार स्वल्प है, और गुरुको बहुत परिवार है. परन्तु गुरुकी इच्छा हो तो शिष्यको देवे, इच्छा न हो तो न देवे, इच्छा हो तो पासमें रखे, इच्छा हो तो पासमें न रखे, इच्छा हो तो अशनादि देवे, इच्छा हो तो न भी देवे, वह सब गुरुमहाराजकी इच्छापर आधार है. परन्तु शिष्यको तो गुरुमहाराजका बहुमान विनय करना ही चाहिये.
(२६) दो स्वधर्मी साधु साथमें विहार करते हो, तो उसको बराबर होके रहना नहीं कल्पै. परन्तु एक गुरु दुसरा शिष्य होके रहना कल्पै. अर्थात् एक दुसरेको वृद्ध समझ उन्होंको वन्दन-नमस्कार, सेवा-भक्ति करते रहना चाहिये.
(२७ ) एवं दो गणविच्छेदक. । २८ ) दो आचार्योपाध्याय. ( २९ ) बहुतसे साधु. ( ३० । बहुतसे गणविच्छेदक. । ३१ ) बहुतसे आचार्योपाध्याय.
(३२) बहुतसे साधु, बहुतसे गणविच्छेदक, बहुतसे आचायोपाध्याय, एकत्र होके रहते है. उन्होंको सबको बराबर होके रहना नहीं कल्पै. परन्तु उस सबोंकी अन्दर गुरु-लघु होना चाहिये. गुरुवोंके प्रति लघुवोंको साधु वन्दन नमस्कार, सेवा-भक्ति करते रहना चाहिये. जिससे शासनका प्रभाव और विनयमय धर्मका पालन हो सके. अर्थात् छोटा साधु बडे साधुवोंको, छोटा गणविच्छेदक बडे गणविच्छेदकको, छोटे आचार्योपाध्याय बडे आचार्योपाध्यायको वन्दन करे तथा क्रमसर जैसे जैसे दीक्षापर्याय हो, उसी माफिक वन्दन करते हुवेको शीतोष्णकालमें विहार करना कल्पै. इति. श्री व्यवहारमत्र-चतुर्थ उद्देशाका संक्षिप्त सार.
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