Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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किन्तु दिगम्बर सम्प्रदायमें जो उल्लेख मिलते हैं वे इस उलझनको बहुत कुछ सुलझा देते हैं। इन उल्लेखोंके अनुसार शक संवत्की उत्पत्ति वीरनिर्वाणसे कुछ मास अधिक ६०५ वर्ष पश्चात् हुई तथा जो विक्रम संवत् प्रचलित है और जिसका अन्तर वीरनिर्वाण कालसे ४७० वर्ष पड़ता है उसका प्रारम्भ विक्रमके जन्म या राज्यकालसे नहीं किन्तु विक्रमकी मृत्युसे हुआ था। ये उल्लेख उपर्युक्त उल्लेखोंकी अपेक्षा अधिक प्राचीन भी हैं। उससे पूर्व प्रचलित वीर और बुद्धके निर्वाण संवत् मृत्युकालसेही सम्बद्ध पाये जाते हैं।
... इन उल्लेखोंसे पूर्वोक्त उलझन इसप्रकार सुलझती है। प्रथम शक संवत् को लीजिये। यह वीर निर्वाणसे ६०५ वर्ष पश्चात् चला। प्रचलित विक्रम संवत् और शक संवत् में १३५ वर्ष का अन्तर पाया जाता है। अतः इस मतके अनुसार विक्रम संवत् का प्रारम्भ वीरनिर्वाणसे ६०५-१३५=४७० वर्ष पश्चात् हुआ । अब विक्रम संवत् पर विचार कीजिये जो विक्रमकी मृत्युसे प्रारम्भ हुआ। मेरुतुंगाचार्यने विक्रमका राज्यकाल ६० वर्ष कहा है, अतएव ४७० वर्षमेंसे ये ६० वर्ष निकाल देनेसे विक्रम के राज्यका प्रारम्भ वीरनिर्वाणसे ४१० वर्ष पश्चात् सिद्ध होता है । इसप्रकार हेमचन्द्रके उल्लेखानुसार जो वीरनिर्वाणसे ४१० वर्ष पश्चात् विक्रमका
१. णिव्वाणे वीरजिणे छव्वास-सदसु पंचवरिसेसु । पणमासेसु गदेसु संजादो सगणिओ अहवा ॥
(तिलोयपण्णत्ति) वर्षाणां षट्शती त्यत्तवा पंचायां मासपंचकम् । मुक्तिं गते महावीरे शकराजस्ततोऽभवत् ।।
(जिनसेन-हरिवंशपुराण) पणछस्सयवस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिन्युइदो । सगराजो ... ... ... ... ...॥ ८५० ॥
(नेमिचन्द्र-त्रिलोकसार ) एसो वीरजिणिंद-णिव्वाण-गद-दिवसादो जाव सगकालस्स आदी होदि । तावदिय-कालो कुदो ६०५-५, एदाम्म काले सग-णरिंद-कालम्मि पक्खित्ते वद्धमाणजिण-णिबुदि-कालागमणादो । वुत् च
पंच य मासा पंच य वासा छच्चेव होति वाससया । सगकालेण य सहिया भावयव्वो तदो रासी ॥ २. छत्तीसे वरिस-सए विक्कमरायस्स मरण-पत्तस्स । सोरटे वलहीए उप्पण्णो सेवडो संघो ॥११॥
पंच-सए छब्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स। दक्षिण-महुरा-जादो दाविङसंघो महामोहो॥२८॥ सत्तसए तेवण्णे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स। णंदियडे वरगामे कट्ठो संघो मुणेयव्वो ॥ ३८ ॥
( देवसेन-दर्शनसार) सषट्तिशे शतेऽब्दानां मृते विक्रमराजनि । सौराष्ट्र वल्लभीपुर्यामभूत्तत्कथ्यते मया ॥
( वामदेव-भावसंग्रह) समारुढे पूत-त्रिदशवसतिं विक्रमनृपे ! सहस्र वर्षाणां प्रभवति हि पंचाशदधिके । समाप्तं पंचम्यामवति धरिणी मुंजनपतों। सिते पक्षे पोषे बुधहितामिदं शास्त्रमनघम् ।।
(आमितगति-सुभाषितरत्नसंदोह ) मते। सप्तविंशति-संयुते । दशपंचशतेऽब्दानामतीते शृणुतापरम् ॥ १५७ ॥
(रत्ननन्दि-भद्रबाहुचरित) ३ विक्रमस्य राज्यं ६० वर्षाणि । ( मेरुतुंग-विचारश्रेणी, पृष्ट ३, जै. सा. संशोधक २ )
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