Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१, १, ४.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे मग्गणासरूववण्णणं
[१३७ यावस्थायां निर्णयात्मकरतेरभावात्तत्रात्मनोऽनिन्द्रियत्वं स्यादिति चेन्न, रूढिबललाभादुभयत्र प्रवृत्यविरोधात् । अथवा स्ववृत्तिरतानीन्द्रियाणि । संशयविपर्ययनिर्णयादौ वर्तनं वृत्तिः, तस्यां स्ववृत्तौ रतानीन्द्रियाणि । निर्व्यापारावस्थायां नेन्द्रियव्यपदेशः स्यादिति चेन्न, उक्तोत्तरत्वात् । अथवा स्वार्थनिरतानीन्द्रियाणि। अर्यत इत्यर्थः, स्वेऽर्थे च निरतानीन्द्रियाणि, निरवद्यत्वान्नात्र वक्तव्यमस्ति । अथवा इन्दनादाधिपत्यादिन्द्रियाणि । उक्तं च
अहमिंदा जह देवा अविसेसं अहमहं ति मण्णंता । ईसंति एक्कमेक्कं इंदा इव इंदिए जाण ॥ ८५॥
शंका-संशय और विपर्ययरूप ज्ञानको अवस्थामें निर्णयात्मक राति अर्थात् प्रवृत्तिका अभाव होनेसे उस अवस्थामें आत्माको अनिन्द्रियपनेकी प्राप्ति हो जावेगी?
समाधान-नहीं, क्योंकि, रूढिके बलसे निर्णयात्मक और अनिर्णयात्मक इन दोनों अवस्थाओंमें इन्द्रिय शब्दकी प्रवृत्ति मानने में कोई विरोध नहीं आता है।
अथवा, अपनी अपनी वृत्तिमें जो रत हैं उन्हें इन्द्रियां कहते हैं। इसका खुलासा इसप्रकार है। संशय और विपर्ययज्ञानके निर्णय आदिके करने में जो प्रवृत्ति होती है उसे वृत्ति कहते हैं। उस अपनी अपनी वृत्तिमें जो रत हैं उन्हें इन्द्रियां कहते हैं।
शंका- जब इन्द्रियां अपने विषयमें व्यापार नहीं करती हैं तब उन्हें व्यापाररहित अवस्थामें इन्द्रिय संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकेगी?
समाधान-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि, इसका उत्तर पहले दे आये हैं कि रूढ़िके बलसे ऐसी अवस्थामें भी इन्द्रिय-व्यवहार होता है।
अथवा, जो अपने अर्थमें निरत हैं उन्हें इन्द्रियां कहते हैं। 'अर्यते' अर्थात् जो निश्चित किया जाय उसे अर्थ कहते हैं। उस अपने विषयरूप अर्थमें जो व्यापार करती हैं उन्हें इन्द्रियां कहते हैं। इन्द्रियोंका यह लक्षण निर्दोष होनेके कारण इस विषयमें अधिक वक्तव्य कुछ भी नहीं है। अर्थात् इन्द्रियोंका यह लक्षण इतना स्पष्ट है कि पूर्वोक्त दोषोंको यहां अवकाश ही नहीं है।
अथवा, अपने अपने विषयका स्वतन्त्र आधिपत्य करनेसे इन्द्रियां कहलाती है। कहा भी है
जिसप्रकार अवेयकादिमें उत्पन्न हुए अहमिन्द्र देव मैं सेवक हूं अथवा खामी हूं इत्यादि
१यदिन्द्रस्यात्मनो लिंगं यदि वेन्द्रेण कर्मणा । सृष्टं जुष्टं तथा दृष्टं दत्तं वेति तदिन्द्रियम् ॥ गो. जी., जी.प्र., टी. १६४. इंदो जीवो सबोवलद्धिभोगपरमेसरतणओ। सोचाइमेयमिंदियमिह तल्लिगाइ भावाओ॥ वि. भा. ३५६०. 'इदि' परमैश्वर्य · इदितो नुम् ' इन्दनादिन्द्र आत्मा (जीवः ) सर्वविषयोपलब्धि (ज्ञान) भोगलक्षणपरमैश्वर्ययोगात् तस्य लिङ्गं चिन्हमविनाभाविलिङ्गसत्तासूचनात् प्रदर्शनादुपलम्भनाद् व्यञ्जनाच्च जीवस्व लिङ्गमिन्द्रियम् । अमि. रा. को. ( इंदिय )
२ गो. जी. १६४. यथा अवेयकादिजाता अहमिन्द्रदेवा अहमहमिति स्वामिभृत्यादिविशेषशून्यं मन्यमाना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org