Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

Previous | Next

Page 524
________________ १, १, १६८.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे सम्मत्तमग्गणापरूवणं [४०५ सम्यग्दर्शनविशेषप्रतिपादनार्थमाह-- मणुसा असंजदसम्माइट्टि-संजदासंजद-संजद-वाणे अत्थि सम्माइट्ठी वेदयसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी ॥ १६४ ॥ सुगमत्वान्नात्र वक्तव्यमस्ति। एवं मणुस-पज्जत्त-मणुसिणीसु ॥ १६५ ॥ एतदपि सुगमम् । देवादेशप्रतिपादनार्थमाह--- देवा अत्थि मिच्छाइट्टी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असं. जदसम्माइट्टि त्ति ॥ १६६ ॥ एवं जाव उवरिम-उवरिम-गेवेज्ज-विमाण-वासिय-देवा त्ति ॥ १६७॥ देवा असंजदसम्माइटि-हाणे अत्थि खइयसम्माइट्टी वेदय. सम्माइट्टी उवसमसम्माइट्टि ति ॥ १६८ ॥ अब मनुष्यों में सम्यग्दर्शनके विशेष प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में क्षायिकसम्यग्दृष्टि वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं ॥ १६४ ॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम होनेसे यहां पर विशेष कहने योग्य नहीं है। अब विशेष मनुष्योंमें विशेष प्रतिपादन करने के लिये सूत्र कहते हैंइसीप्रकार पर्याप्त मनुष्य और पर्याप्त मनुष्यनियोंमें भी जानना चाहिये ॥ १६५ ॥ इस सूत्रका अर्थ भी सुगम है। अब देवोंमें विशेष प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं देव मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि होते हैं ॥ १६६ ॥ अब उक्त अर्थके देवविशेषों में प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैंइसीप्रकार उपरिम अवेयकके उपरिम पटल तकके देव जानना चाहिये ॥ १६७ ॥ अब देवोंमें सम्यग्दर्शनके भेदोंके प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैंदेव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560