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यह
७१ ९. 'अप्पाउओ ति अवगय-जिणवालिदेण ' इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतार में यह प्रसंग इस प्रकार दिया है 'विज्ञायाल्पायुष्यानल्पमतीन्मानवान् प्रतीत्य ततः ' जिसका अर्थ यह होता है कि भूतबलिने मनुष्योंको अल्पायु समझकर सिद्धान्तों को पुस्तकारूढ़ करने का निश्चय किया। पं. जुगलकिशोरजीने इसका अर्थ इसप्रकार किया है 'भूतबलिने... मालूम किया कि जिनपालित अल्पायु हैं' (जै. सि. भा. ३, ४ )। किन्तु जिनपालितके अल्पायु होनेसे सिद्धान्तके लोप होने की आशंकाका कोई कारण नहीं था, किन्तु पुष्पदन्त और भूतबलिमेंसे किसी एकके अल्पायु होनेसे सिद्धान्त- लोपकी आशंका हो सकती थी । इसी उपपत्तिको ध्यान में रखकर अनुवादमें अल्पायुका सम्बन्ध पुष्पदन्तसे जोड़ दिया गया है ।' अवगतः जिन पालितात् येन सः तेन भूतबलिना ' ऐसा समास ध्यानमें रक्खा गया है।
११२ ५. जगदि । यह पाठ प्रतियोंका है। टिप्पणी में इसके स्थानपर 'जं दिट्ठ' पाठकी कल्पना
सूचित की गयी है । वसुनन्दिश्रावकाचारकी गाथा ३ में 'इन्दभृरणा सेणियस्स जह दिट्ठ' ऐसा चरण दृष्टिगोचर हुआ । अतः अनुमान होता है कि यहां भी संभवतः शुद्ध पाठ 'जह दिट्ठ' रहा होगा जिसका संस्कृत रूप ' यथा दिष्टम् ' होता है ।
१४६ ५. ' अन्तर्बहिर्मुखयो ' आदि । इसका अनुवाद निम्न प्रकार करना ठीक होगासमाधान -- नहीं, क्योंकि, अन्तर्मुख चैतन्य अर्थात् स्वरूपसंवेदनको दर्शन और बहिर्मुख प्रकाशको शान माना है " । इत्यादि ।
२२४ ७. उप्पायाणुच्छेद का अर्थ अनुवादमें इस प्रकार समझना चाहिये
व्युच्छेद दो प्रकारका होता है-उत्पादानुच्छेद और अनुत्पादानुच्छेद। उनमें उत्पादानुच्छेद से द्रव्यार्थिक नयका ग्रहण किया गया है जिसका अभिप्राय यह है कि जिस समय में जिस प्रकृतिकी सत्वादि व्युच्छित्ति होती है उसी समय उसका अभाव कहा जाता है। अनुत्पादानुच्छेद पर्यायार्थिकरूप है जिसका अभिप्राय यह है कि जिस समय में जिस प्रकृतिकी सत्वादि व्युच्छित्ति होती है उसके अगले समय में उसका अभाव कहा जाता है ।
३८५ ६. यहां प्रतियोंमें दर्शनकी परिभाषा न होनेसे वाक्य अधूरासा रह जाता है, अतएव उतने अंशकी पूर्ति पृ. ३८४ पंक्ति १ के अनुसार कर दी है, और उतने वाक्यांश को कोष्टकके भीतर रख दिया है। प्रस्तुत ग्रंथमें यही एक ऐसा स्थल सामने आया जहां हम अन्यत्रसे पाठकी पूर्ति किये विना निर्वाह न कर सके ।
३८८ ९. गाथा नं. २०१ में भेज्जो' का अर्थ गोम्मटसारकी जीवप्रबोधिनी टीका में ' परेणावबोध्याभिप्रायः। तथा टोडरमलजीके हिन्दी अनुवाद में 'जिसके अभिप्रायको और कोई न जाने' किया गया है। किन्तु 'भेज्ज' का अर्थ देशी नाममालाके अनुसार भीरु होता है । यथा 'भयालुए भेड-भेज्ज-भेज्जलया' । (टीका) 'भेडो भेज्जो तथा भेज्जलओ त्रयोऽपि अमी भीरुवाचकाः' (दे. ना. मा. ६, १०७ ) । यह अर्थ प्रस्तुत प्रसंग में दूसरोंकी अपेक्षा अधिक उपयुक्त प्रतीत हुआ । अतएव इसीके अनुसार अनुवादमें 'भीरु' अर्थ ही किया गया है ।
भूमिका पृ. ६० पं. १ में गाथा से पूर्व 'तह आयारंगे वि उत्तं' इतना पाठ छूट गया
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