Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 528
________________ १, १, १७६.] संत परूवणाणुयोगदारे आहारमग्गणापरूवणं [१०९ ग्रहणाद्विकलेन्द्रियवदिति चेद्भवत्वेवं यदि मनोऽनपेक्ष्य ज्ञानोत्पत्तिमात्रमाश्रित्यासंज्ञित्वस्य निवन्धनमिति चेन्मनसोऽभावाद् बुद्ध्यतिशयाभावः, ततो नानन्तरोक्तदोष इति सुगममेतत् । असण्णी एइंदिय-प्पहुडि जाव असण्णि-पंचिंदिया ति ॥१७॥ एतदपि सुगमं सूत्रम् । आहारमुखेन जीवप्रतिपादनार्थमाह - आहाराणुवादेण अत्थि आहारा अणाहारा ॥ १७५॥ एतदपि सुगमम् । आहारगुणप्रतिपादनार्थमाहआहारा एइंदिय-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि ति ॥ १७६॥ अत्र कवललेपोष्ममनःकर्माहारान् परित्यज्य नोकर्माहारो ग्राह्यः, अन्यथाहारकालविरहाभ्यां सह विरोधात् । जीवोंकी तरह बाह्य पदार्थों का ग्रहण करते हैं ? समाधान-यदि मनकी अपेक्षा न करके शानकी उत्पत्तिमात्रका आश्रय करके शानोत्पत्ति असंक्षीपनेकी कारण होती तो ऐसा होता। परंतु ऐसा तो है नहीं, क्योंकि, कदाचित् मनके अभावसे विकलेन्द्रिय जीवोंकी तरह केवलीके बुद्धिके अतिशयका अभाव भी कहा जावेगा, इसलिये केवलीके पूर्वोक्त दोष लागू नहीं होता है। शेष कथन सुगम है। अब असंत्री जीवोंके गुणस्थान बतलानेके लिये सूत्र कहते हैअसंझी जीव एकेन्द्रियसे लेकर असंही पंचेन्द्रियपर्यन्त होते हैं ॥ १७४ ॥ यह सूत्र सुगम है। अब आहारमार्गणाके द्वारा जीवोंके प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैंआहारमार्गणाके अनुवादसे आहारक और अनाहारक जीव होते हैं ॥ १७५॥ यह सूत्र भी सुगम है। अब आहारमार्गणामें गुणस्थानों के प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैंआहारक जीव एकेन्द्रियसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थानतक होते हैं। १७६ ॥ यहांपर आहार शब्दसे कवलाहार, लेपाहार, ऊष्माहार, मानसिकाहार और कर्माहारको छोड़कर नोकर्माहारका ही ग्रहण करना चाहिये। अन्यथा आहारकाल और विरहके साथ विरोध आता है। १ असंशिपु एकमेव मिथ्यादृष्टिस्थानम् । स. सि. १. ८. २ आहारानुवादेन आहारकेषु मिथ्यादृष्टयादीनि सयोगकेवल्यन्तानि । स. सि. १.८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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