Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 529
________________ छत्रखंडागमे जीवद्वाणं १, १, १७७. अणाहारा चंदुसु द्वाणेसु विग्गहगह- समावण्णाणं केवलीणं वा समुग्धाद-गदाणं अजोगिकेवली सिद्धा चेदि ॥ १७१ ॥ एते शरीरप्रायोग्यपुद्गलोपादानरहितत्वादनाहारिण उच्यन्ते । इदि संत सुत्त विवरणं समत्तं । ४१० ] अब अनाहारकोंके गुणस्थान बतलाने के लिये सूत्र कहते हैं विग्रहगतिको प्राप्त जीवोंके मिथ्यात्व, सासादन और अविरतसम्यग्दृष्टि तथा समुद्धा - तगत केवलियों के सयोगिकेवली, इन चार गुणस्थानों में रहनेवाले जीव और अयोगिकेवली तथा सिद्ध अनाहारक होते हैं । १७७ ॥ ये जीव शरीरके योग्य पुगलोंका ग्रहण नहीं करते हैं, इसलिये अनाहारक होते हैं । इसप्रकार सत्प्ररूपणा-सूत्र- विवरण समाप्त हुआ । १ अनाहारकेषु विग्रहगत्यापन्नेषु त्रीणि गुणस्थानानि, मिथ्यादृष्टिः सासादनसम्यग्दृष्टिरसंयत सम्यग्दृष्टिश्व | समुद्धतिगतः सयोगकेवली अयोगकेवली च । स. सि. १. ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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