Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, २७. ]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदिमग्गणापरूवणं
[ २२१
णिज्जरा - संकमाणं सरिससगं सिद्धं । समाण-समय- संठिय-सव्वाणियद्वीणं द्विदि-अणुभागखंड सु सरिसं विदंतेसु घादिदावसेस डिदि - अणुभागेसु सरिसत्तणेण चिट्टमाणेसु अपणो पसत्थापसत्थत्तणं पयडीसु अ छदमाणेषु कथं पयडि विणासस्स विवज्जासो ? तम्हा दोहं वयणाणं मज्झे एकमेव सुत्तं होदि, जदो ' जिणा ण अण्णा - बाइणो ' तदो तव्वयणाणं विप्पडिसेहो इदि चे सच्चमेयं, किंतु ण तव्वयणाणि एयाई आइल्लुआइरिय- वयणाई, तदो एयाणं विरोहस्सत्थि संभवो इदि । आइरिय कहियाणं संतकम्मकसायपाहुडाणं कथं सुत्तत्तणमिदि चे ण, तित्थयर - कहियत्थाणं गणहरदेव-कय-गंधरयमाणं वारहंगाणं आइरिय-परंपराए निरंतर मागयाणं जुग सहावेण बुद्धीसु ओहतीसु भायणाभावेण पुणो ओहट्टिय आगयाणं पुणो मुहु-बुद्धीणं खयं दट्ठूण तित्थ-वोच्छेदभण वज्र-भीरूहि गहिदत्थेहि आइरिएहि पोत्थए चडावियाणं असुत्तत्तण-विरोहादो ।
संक्रमण में भी समानता सिद्ध हो जाती है ।
शंका- इसतरह समान समय में स्थित संपूर्ण अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवाल के स्थितिखंड और अनुभागखंडों के समानताको प्राप्त होने पर, घात करनेके पश्चात् शेष रहे हुए स्थिति और अनुभागों के समानरूपसे विद्यमान रहने पर और प्रकृतियोंके अपना अपना प्रशस्त और अप्रशस्तपनाके छोड़ देने पर अर्थात् सभी कार्योंके समानरूपसे रहने पर व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों के विनाशमें विपर्यास कैसे हो सकता है ? अर्थात् किन्हीं जीवोंके पहले आठ कषायके नष्ट हो जाने पर सोलह प्रकृतियोंका नाश होता है, और किन्हीं जीवोंके पहले सोलह प्रकृतियोंके नष्ट हो जाने पर पश्चात् आठ कषायोंका नाश होता है, यह बात कैसे संभव हो सकती है ? इसलिये दोनों प्रकारके वचनों में से कोई एक वचन ही सूत्ररूप हो सकता है, क्योंकि, जिन अन्यथावादी नहीं होते । अतः उनके वचनों में विरोध नहीं होना चाहिये ।
समाधान --- यह कहना सत्य है कि उनके वचनों में विरोध नहीं होना चाहिये, परंतु ये जिनेन्द्रदेव के वचन न होकर उनके पश्चात् आचार्योंके वचन हैं, इसलिये उन वचनों में विरोध होना संभव है ।
शंका- तो फिर आचार्योंके द्वारा कहे गये सत्कर्मप्रभृत और कपायाभूतको सूत्रपना कैसे प्राप्त हो सकता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि, जिनका अर्थरूपसे तीर्थंकरोंने प्रतिपादन किया है, और गणधर देवने जिनकी ग्रन्थ रचना की ऐसे बारह अंग आचार्य परंपरा से निरन्तर चले आ रहे हैं । परंतु कालके प्रभावसे उत्तरोत्तर बुद्धिके क्षीण होने पर और उन अंगोंको धारण करनेवाले योग्य पात्रके अभाव में वे उत्तरोत्तर क्षीण होते हुए आ रहे हैं। इसलिये जिन आचार्योंने आगे श्रेष्ठ बुद्धिवाले पुरुषोंका अभाव देखा, जो अत्यन्त पापभीरु थे और जिन्होंने गुरुपरंपरा से श्रुतार्थ ग्रहण किया था उन आचार्योंने तीर्थावच्छेदके भय से उस समय अविशिष्ट रहे हुए अंग संबन्धी अर्थको पोथियों में लिपिबद्ध किया, अतएव उनमें असूत्रपना नहीं आ सकता है ।
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