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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, १४७. कथमस्य वेदकसम्यग्दर्शनव्यपदेश इति चेदुच्यते । दर्शनमोहवेदको वेदकः, तस्य सम्यग्दर्शनं वेदकसम्यग्दर्शनम् । कथं दर्शनमोहोदयवतां सम्यग्दर्शनस्य सम्भव इति चेन्न, दर्शनमोहनीयस्य देशघातिन उदये सत्यपि जीवस्वभावश्रद्धानस्यैकदेशे सत्यविरोधात् । देशघातिनो दर्शनमोहनीयस्य कथं सम्यग्दर्शनव्यपदेश इति चेन्न, सम्यग्दर्शनसाहचर्यात्तस्य तद्वयपदेशाविरोधात् ।।
औपशमिकसम्यग्दर्शनगुणस्थानप्रतिपादनार्थमाह -
उबसमसम्माइट्टी असंजदसम्माइट्टि-पहुडि जाव उवसंतकसाय वीयराय-छदुमत्था ति ॥ १४७ ॥
सुगममेतत् । सासणसम्माइट्टी एकम्मि चेय सासणसम्माइटि-टाणे ॥१४८॥ शंका-क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनको वेदक सम्यग्दर्शन यह संज्ञा कैसे प्राप्त होती है ?
समाधान-दर्शनमोहनीय कर्मके उदयका वेदन करनेवाले जीवको वेदक कहते हैं। उसके जो सम्यग्दर्शन होता है उसे वेदकसम्यग्दर्शन कहते हैं।
शंका-जिनके दर्शनमोहनीय कर्मका उद्य विद्यमान है उनके सम्यग्दर्शन कैसे पाया जा सकता है?
समाधान-नहीं, क्योंकि, दर्शनमोहनीयकी देशघात प्रकृतिके उदय रहने पर भी जीयके स्वभावरूप श्रद्धानके एकदेश रहनेमें कोई विरोध नहीं आता है।
शंका -दर्शनमोहनीयकी देशघाति प्रकृतिको सम्यग्दर्शन यह संज्ञा कैसे दी गई ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, सम्यग्दर्शनके साथ सहचर संबन्ध होनेके कारण उसको सम्यग्दर्शन इस संज्ञाके देने में कोई विरोध नहीं आता है।
अब भोपशमिक सम्यग्दर्शनके गुणस्थानोंके प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं
उपशमसम्यग्दृष्टि जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर उपशान्त कषाय. वीतराग छमस्थ गुणस्थानतक होते हैं ॥ १४७ ॥
इस सूत्रका अर्थ सुगम है।
अब सासादनसम्यक्त्व आदि संबन्धी गुणस्थानोंके प्रतिपादन करनेके लिये तीन सूत्र कहते हैं
सासादनसम्यग्दृष्टि जीव एक सासार्दनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें ही होते हैं ॥ १४८ ॥
१ औपशमिकसम्यक्त्वे असंयतसम्यग्दृष्टयादीनि उपशान्तकषायान्तानि । स. सि. १.८.
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