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१, १, १४६. ] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे सम्मत्तमग्गणापरूवणं
[ ३९७ तत्र यथार्थश्रद्धानं प्रति साम्योपलम्भात् । क्षयक्षयोपशमोपशमविशिष्टानां यथार्थश्रद्धानानां कथं समानतेति चेद्भवतु विशेषणानां भेदो न विशेष्यस्य यथार्थश्रद्धानस्य । सुगममन्यत् ।
वेदकसम्यग्दर्शनगुणसंख्याप्रतिपादनार्थमाह -
वेदगसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्टि-प्पहुडि जाव अप्मपत्तसजदा ति ॥ १४६॥
उपरितनगुणेषु किमिति वेदकसम्यक्त्वं नास्तीति चन्न, अगाढसमलश्रद्धानेन सह क्षपकोपशमश्रेण्यारोहणानुपपत्तेः । वेदकसम्यक्त्वादौपशमिकसम्यक्त्वस्य कथमाधिक्यतेति चेन्न, दर्शनमोहोदयजनितशैथिल्यादेस्तनासत्त्वतस्तदाधिक्योपलम्भात् ।
होने पर सदृशता क्या वस्तु हो सकती है?
. समाधान- नहीं, क्योंकि, उन तीनों सम्यग्दर्शनों में यथार्थ श्रद्धानके प्रति समानता पाई जाती है।
शंका-क्षय, क्षयोपशम और उपशम विशेषणसे युक्त यथार्थ श्रद्धानों में समानता कैसे हो सकती है?
समाधान-- विशेषणोंमें भेद भले ही रहा आवे, परंतु इससे यथार्थ श्रद्धारूप विशेष्यमें भेद नहीं पड़ता है।
शेष सूत्रका अर्थ सुगम है।
अब वेदकसम्यग्दर्शनके गुणस्थानोंकी संख्याके प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं
वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थानतक होते हैं ॥ १४६॥
शंका-ऊपरके आठवें आदि गुणस्थानोंमें वेदकसम्यग्दर्शन क्यों नहीं होता है ?
समाधान- नहीं होता, क्योंकि, आगाढ़ आदि मलसहित श्रद्धानके साथ क्षपक और उपशम श्रेणीका चढ़ना नहीं बनता है। ___ शंका-वेदकसम्यग्दर्शनसे औपशमिक सम्यग्दर्शनकी अधिकता अर्थात् विशेषता कैसे संभव है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, दर्शनमोहनीयके उदयसे उत्पन्न हुई शिथिलता आदि औपशमिक सम्यग्दर्शनमें नहीं पाई जाती है, इसलिये वेदकसम्यग्दर्शनसे औपशमिकसम्यग्दर्शनमें विशेषता सिद्ध हो जाती है
१क्षायोपशामकसम्यक्त्वे असंयतसम्यग्दृष्टयादीनि अप्रमत्चान्तानि । स. सि. १. ८.
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