Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, ४२.]
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संत-परवणाणुयोगद्दारे कायमग्गणापरूवणं ओसा य हिमो धूमरि हरदणु सुद्धोदवो घणोदो य' । एदे हु आउकाया जीवा जिण-सासणुद्दिट्टा ॥ १५० ॥ इंगाल-जाल-अच्ची मुम्मुर-सुद्धागणी तहा अगणी । अण्णे वि एवमाई तेउक्काया समुद्दिवा ॥ १५१ ।। वाउभामो उक्कलि-मंडलि-गुंजा महा घणा य तणा । एदे उ वाउकाया जीवा जिण-ईद-णिदिवा ॥ १५२ ।। मूलग्ग-पोर-बीया कंदा तह खंध-बीय-बीयरुहा । सम्मुच्छिमा य भणिया पत्तेयाणंतकाया य ॥ १५३॥
कर्केतनमणि, राजवर्तकरूप मणि, पुलकवर्णमणि, स्फटिकमाण, पद्मरागमणि, चद्रकान्तमणि, वैडूर्यमणि, जलकान्तमणि, सूर्यकान्तमणि, गेरुवर्ण रुधिराक्षमणि, चन्दनगन्धमणि, अनेक प्रकारका मरकतमणि, पुखराज, नीलमणि, और विद्मवर्णवाली मणि ये सब पृथिवीके भेद हैं, इसलिये इनके भेदसे पृथिवीकायिक जीव भी छत्तीस प्रकारके हो जाते हैं ॥ १४९॥
ओस, वर्फ, कुहरा, स्थूल बिन्दुरूप जल, सूक्ष्म बिन्दुरूप जल, चद्रकान्तमणिसे उत्पन्न हुआ शुद्ध जल, झरना आदिसे उत्पन्न हुआ जल, समुद्र, तालाव और घनवात आदिसे उत्पन्न हुआ घनोदक, अथवा, हरदणु अर्थात् तालाव और समुद्र आदिसे उत्पन्न हुआ जल तथा घनोदक अर्थात् मेघ आदिसे उत्पन्न हुआ जल ये सब जिन शासनमें जलकायिक जीव कहे गये हैं। १५०॥
__ अंगार, ज्वाला, अर्चि अर्थात् आग्निकिरण, मुर्मुर अर्थात् भूसा अथवा कण्डाकी अग्नि, शुद्धाग्नि अर्थात् विजली और सूर्यकान्त आदिसे उत्पन्न हुई अग्नि और धूमादिसहित सामान्य अग्नि, ये सब अग्निकायिक जीव कहे गये हैं ॥ १५१॥
सामान्य वायु, उद्घाम अर्थात् घूमता हुआ ऊपर जानेवाला वायु (चक्रवात), उत्कलि अर्थात् नीचेकी ओर बहनेवाला या जलकी तरंगोंके साथ तरंगित होनेवाला वायु, मण्डलि अर्थात् पृथिवीसे स्पर्श करके घूमता हुआ वायु, गुंजा अर्थात् गुंजायमान वायु, महावात अर्थात् वृक्षादिकके भंगसे उत्पन्न होनेवाला वायु, घनवात औरः तनुवात ये सब वायुकायिक जीव जिनेन्द्र भगवान्ने कहे हैं ॥ १५२॥
मूलबीज, अग्रबीज, पर्वबीज, कन्दबीज, स्कन्धबीज, बीजरुह और संमूर्छिम, ये सब
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१ ओसा य हिमग महिगा हरदणु सुद्धोदगे घणुदगे य। ते जाण आउजीवा जाणित्ता परिहरेदवा॥ मूलाचा. २१० । आचा. नि. १०८ । उत्त. ३६. ८६ । प्रज्ञा. १. २०.
२ मूलाचा. २११ । आचा. नि. ११८ । उत. ३६. ११०-१११ । प्रज्ञा. १. २३.
३ मूलाचा. २१२. उक्कलिया मंडलिया गुंजा घणवाय सुद्धवाया य । बादर वाउविहाणा पंचविहा वीण्णय एए ॥ आचा. नि. १६६ । उत्त. ३६. ११९-१२० । प्रज्ञा. १. २६.
४ गो. जी. १८६ । मूलाचा. २१३. मूल मूलबीजा जीवा येषां मूलं प्रादुर्भवति ते च हरिद्रादयः । अग्ग
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