Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 497
________________ छक्खंडागमे जीवाणं ___ [१, १, १२९. सुगमत्वान्नात्र वक्तव्यमस्ति । देशविरतगुणस्थानप्रतिपादनार्थमाहसंजदासंजदा एकम्मि चेय संजदासंजद-ट्ठाणे ॥१२९ ॥ सुगममेतत् । असंयतगुणस्य गुणस्थानप्रमाणनिरूपणार्थमाह - असंजदा एइंदिय-प्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्टि ति ॥१३०॥ मिथ्यादृष्टयोऽपि केचित्संयता दृश्यन्त इति चेन्न, सम्यक्त्वमन्तरेण संयमानुपपत्तेः । सिद्धानां कः संयमो भवतीति चेन्नैकोऽपि । यथा बुद्धिपूर्वकनिवृत्तेरभावान संयतास्तत एव न संयतासंयताः नाप्यसंयताः प्रगष्टाशेषपापक्रियत्वात् ।। संयमद्वारेण जीवपदार्थमभिधाय साम्प्रतं दर्शनमुखेन जीवसत्तानिरूपणार्थमाह - दसणाणुवादेण अत्थि चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी ओधिदसणी केवलदसणी चेदि ॥ १३१ ॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम होनेसे यहां विशेष कुछ कहने योग्य नहीं है। अब देशविरत गुणस्थानके प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैंसंयतासंयत जीव एक संयतासंयत गुणस्थानमें ही होते हैं ॥ १२९ ॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है। अब असंयतगुणके गुणस्थानोंके प्रमाणके निरूपण करने के लिये सूत्र कहते हैंअसंयत जीव एकेन्द्रियसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानतक होते हैं ॥ १३०॥ शंका-कितने ही मिथ्यादृष्टि जीव संयत देखे जाते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि, सम्यग्दर्शनके विना संयमकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। शंका-सिद्ध जीवोंके कौनसा संयम होता है ? समाधान-एक भी संयम नहीं होता है। उनके बुद्धिपूर्वक निवृत्तिका अभाव होनेसे जिसलिये वे संयत नहीं हैं, इसलिये संयतासंयत नहीं है और असंयत भी नहीं है, क्योंकि, उनके संपूर्ण पापरूप क्रियाएं नष्ट हो चुकी हैं। संयममार्गणाके द्वारा जीव-पदार्थका कथन करके अब दर्शनमार्गणाके द्वारा जीवोंके अस्तित्वके प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शनके धारण करनेवाले जीव होते हैं ॥ १३१॥ १ संयतासंयता एकस्मिन्नेव संयतासंयतस्थाने । स. सि. १. ८. २ असंयताः आयेषु चतुर्पु गुणस्थानेषु । स. सि. १. ८. ३ भावचक्षुरिन्द्रियावरणक्षयोपशमाद् द्रव्येन्द्रियानुपघाताच्च चक्षुर्दर्शनिनश्चक्षुर्दर्शनलब्धिमतो जीवस्य घटादिषु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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