________________
१, १, १२८.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे संजममग्गणापरूवणं याणां द्वैविध्यमापतेदिति । नाद्यौ विकल्पावनभ्युपगमात् । न तृतीयविकल्पोक्तदोषः सम्भवति पश्चैकयमभेदेन संयमभेदाभावात् । यद्येकयमपञ्चयमौ संयमस्य न्यूनाधिकभावस्य निबन्धनावेवाभविष्यतां संयमभेदोऽप्यभविष्यत् । न चैवं संयम प्रति द्वयोरविशेषात् । ततो न सूक्ष्मसाम्परायसंयमस्य तद्द्वारेण द्वैविध्यमिति । तद्वारेण संयमस्य द्वैविध्याभावे पञ्चविधसंयमोपदेशः कथं घटत इति चेन्मा घटिष्ट । तर्हि कतिविध संयमः ? चतुर्विधः पञ्चमस्य संयमस्यानुपलम्भात् । सुगममन्यत् ।
चतुर्थसंयमस्याध्वानप्रतिपादनार्थमाह
जहाक्खाद-विहार-सुद्धि-संजदा चदुसु हाणेसु उवसंत-कसायवीयराय-छदुमत्था खीण-कसाय-वीयराय-छदुमत्था सजोगिकेवली अजोगिकेवलि त्ति ॥ १२८॥
समाधान-आदिके दो विकल्प तो ठीक नहीं हैं, क्योंकि, वैसा हमने माना नहीं है। इसीप्रकार तीसरे विकल्पमें दिया गया दोष भी संभव नहीं है, क्योंकि, पंचयम और एकयमके भेदसे संयममें कोई भेद ही संभव नहीं है । यदि एकयम और पंचयम संयमके न्यूनाधिकभावके कारण होते तो संयममें भेद भी हो जाता। परंतु ऐसा तो है नहीं, क्योंकि, संयमके प्रति दोनोंमें कोई विशेषता नहीं है। अतः सूक्ष्मसांपराय संयमके उन दोनोंकी अपेक्षा दो भेद नहीं हो सकते हैं।
शंका-जब कि उन दोनोंकी अपेक्षा संयमके दो भेद नहीं हो सकते हैं तो पांच प्रकारके संयमका उपदेश कैसे बन सकता है?
समाधान- यदि पांच प्रकारका संयम घटित नहीं होता है तो मत होओ। शंका-तो संयम कितने प्रकारका है ?
समाधान-संयम चार प्रकारका है, क्योंकि, पांचवा संयम पाया ही नहीं जाता है। शेष कथन सुगम है।
विशेषार्थ—सामायिक और छेदोपस्थापना संयममें विवक्षा भेदसे ही भेद है वास्तवमें नहीं, अतः ये दोनों मिलकर एक और शेषके तीन इसप्रकार संयम चार प्रकारके होते हैं।
अब चौथे संयमके गुणस्थानोंके प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं
यथाख्यात-विहार-शुद्धि-संयत जीव उपशान्त-कषाय वीतराग-छद्मस्थ, क्षीणकषायवीतराग-छद्मस्थ सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन चार गुणस्थानों में होते हैं ॥ १२८॥
१ यथाख्यातविहारशुद्धिसंयताः उपशान्तकषायादयोऽयोगकेवल्यन्ताः । स. सि. १.८.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org