Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

Previous | Next

Page 504
________________ १, १, १३५.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे दंसणमग्गणापरूवणं [३८५ सुगममेतत् । विभङ्गदर्शनं किमिति पृथग् नोपदिष्टमिति चेन्न, तस्यावधिदर्शने - न्तर्भावात् । मनःपर्ययदर्शनं तर्हि वक्तव्यमिति चेन्न, मतिपूर्वकत्वात्तस्य दर्शनाभावात् । केवलदर्शनस्वामिप्रतिपादनार्थमाह-- केवलदसणी तिसु ठाणेसु सजोगिकेवली अजोगिकेवली सिद्धा चेदि ॥ १३५॥ __ अनन्तत्रिकालगोचरबाह्येऽर्थे प्रवृत्तं केवलज्ञानं ( स्वतोऽभिन्नवस्तुपरिच्छेदकं च दर्शनमिति ) कथमनयोः समानतेति चेत्कथ्यते । ज्ञानप्रमाणमात्मा ज्ञानं च त्रिकालगोचरानन्तद्रव्यपर्यायपरिमाणं ततो ज्ञानदर्शनयोः समानत्वमिति । स्वजीवस्थपर्यायैज्ञानादर्शनमधिकमिति चेन्न, इष्टत्वात् । कथं पुनस्तेन तस्य समानत्वम् ? न, अन्योन्यात्मकयोस्तदविरोधात् । उक्तं चस्थान तक होते हैं ॥१३॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है। शंका-विभंगदर्शनका पृथक् रूपसे उपदेश क्यों नहीं किया? समाधान नहीं, क्योंकि, उसका अवधिदर्शनमें अन्तर्भाव हो जाता है। शंका- तो मनःपर्ययदर्शनको भिन्न रूपसे कहना चाहिये ? समाधान नहीं, क्योंकि, मनःपर्ययज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है, इसलिये मनःपर्ययदर्शन नहीं होता है। अब केवलदर्शनके स्वामीके प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं केवलदर्शनके धारक जीव सयोगिकेवली, अयोगिकेवली और सिद्ध इन तीन स्थानों में होते हैं ॥१३५॥ शंका-त्रिकालगोचर अनन्त बाह्य पदार्थोंमें प्रवृत्ति करनेवाले ज्ञान है और स्वरूपमात्रमें प्रवृत्ति करनेवाला दर्शन है, इसलिये इन दोनोंमें समानता कैसे हो सकती है ? समाधान- आत्मा ज्ञानप्रमाण है और ज्ञान त्रिकालके विषयभूत द्रव्योंकी अनन्त पर्यायोंको जाननेवाला होनेसे तत्परिमाण है, इसलिये ज्ञान और दर्शनमें समानता है। शंका- जीवमें रहनेवाली स्वकीय पर्यायोंकी अपेक्षा शानसे दर्शन अधिक है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, यह बात इष्ट ही है। शंका--फिर ज्ञानके साथ दर्शनकी समानता कैसे हो सकती है ? समाधान-समानता नहीं हो सकती यह बात नहीं है, क्योंकि, एक दूसरेकी अपेक्षा करनेवाले उन दोनों में समानता मान लेनेमें कोई विरोध नहीं आता है। कहा भी है १ केवलदर्शने सयोगकेवली अयोगकेवली च । स. सि. १.८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560